Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 55
________________ धर्मरसायन 44 जो जिणवरिंदपूअं कुणइ ससत्तीइ सो महापुरिसो। तेलोयपूअणीओ अइरेण य सो णरो होइ ।।138|| यो जिनवरेन्द्रपूजां करोतिस्वशक्त्या स महापुरुषः। त्रिलोकपूजितोऽचिरेण च स नरो भवति ।।138|| जो मनुष्य अपनी शक्ति के अनुरूप भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करता है, उस महापुरुष की शीघ्र ही तीनों लोकों के द्वारा पूजा की जाती है। सव्वण्हूपरिक्खा सम्मत्ता । सवईपरीक्षा समाप्ता । सर्वज्ञ-परीक्षा का वर्णन समाप्त हुआ। धम्मो जिणेण भणिओ सायारो तह हवे अणायारो। एएसिं दोण्हं पि हु सारं खलु होइ सम्मत्तं ।।139॥ धर्मो जिनैः भणित: सागारस्तथा भवेदनगारः । एतयोर्द्वयोरपिहिसारंखलुभवति सम्यक्त्वम्।।139|| जिनों के द्वारा धर्म दो प्रकार का बताया गया है - सागार (गृहस्थ) तथा अनगार (संन्यास)। इन दोनों का सार ही वस्तुतः 'सम्यक्त्व है। सम्मत्तसलिलपवहो णिच्वं हिययम्मि पवट्ठए जस्स। कम्मं वालुयरम्मि तस्स' बंधो च्चिय ण एइ ।।140॥ सम्यक्त्वसलिलप्रवाहो नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य । कर्मवालुकावरणं तस्य बन्धमेव नेति ||1401 1. 'बन्धुचिय णासएतस्स' इति दर्शनप्राभृते पाठान्तरम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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