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धर्मरसायन
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जो जिणवरिंदपूअं कुणइ ससत्तीइ सो महापुरिसो। तेलोयपूअणीओ अइरेण य सो णरो होइ ।।138|| यो जिनवरेन्द्रपूजां करोतिस्वशक्त्या स महापुरुषः। त्रिलोकपूजितोऽचिरेण च स नरो भवति ।।138||
जो मनुष्य अपनी शक्ति के अनुरूप भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करता है, उस महापुरुष की शीघ्र ही तीनों लोकों के द्वारा पूजा की जाती है।
सव्वण्हूपरिक्खा सम्मत्ता । सवईपरीक्षा समाप्ता । सर्वज्ञ-परीक्षा का वर्णन समाप्त हुआ।
धम्मो जिणेण भणिओ सायारो तह हवे अणायारो। एएसिं दोण्हं पि हु सारं खलु होइ सम्मत्तं ।।139॥ धर्मो जिनैः भणित: सागारस्तथा भवेदनगारः । एतयोर्द्वयोरपिहिसारंखलुभवति सम्यक्त्वम्।।139||
जिनों के द्वारा धर्म दो प्रकार का बताया गया है - सागार (गृहस्थ) तथा अनगार (संन्यास)। इन दोनों का सार ही वस्तुतः 'सम्यक्त्व है।
सम्मत्तसलिलपवहो णिच्वं हिययम्मि पवट्ठए जस्स। कम्मं वालुयरम्मि तस्स' बंधो च्चिय ण एइ ।।140॥ सम्यक्त्वसलिलप्रवाहो नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य ।
कर्मवालुकावरणं तस्य बन्धमेव नेति ||1401 1. 'बन्धुचिय णासएतस्स' इति दर्शनप्राभृते पाठान्तरम्।
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