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________________ - धर्मरसायन और क्योंकि उन्होंने कर्म (रज) रूपी शत्रुओं का विनाश कर दिया है अतः वे 'अर्हन्त' कहे जाते हैं । 43 जियकोहो जियमाणो जियमायालोहमोह जियमयओ । जियमच्छरो य जह्मा तम्हा णामं जिणो उत्तो ॥ 135॥ जितक्रोधो जितमानो जितमायालोभमोहः जितमदः । जितमत्सरश्च यस्मात्तस्मान्नाम जिन उक्तः ॥ 135|| क्योंकि उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मद तथा मत्सर को जीत लिया है, इसलिए उनका नाम 'जिन' कहा गया है। जम्मजरमरणतिदयं जम्हा बहुं जिणेण णिस्सेसं । तम्हा तिउरविणासो होइ जिणे णत्थि संदेहो ॥ 136॥ जन्मजरामरणत्रितयं यस्माद्दग्धं जिनेन निःशेषम् । तस्मात्त्रिपुरविनाशे भवति जिने नास्ति सन्देहः || 136ll क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् ने जन्म, जरा तथा मरण - इन तीनों को पूरी तरह दग्ध ( नष्ट) कर दिया है, इसलिए उनके ' त्रिपुरविनाशक' होने में कोई सन्देह नहीं है । अरहंतपरमदेवं जो वंदइ परमभत्तिसंजुत्तो । तेलोयवंदणीओ अइरेण य सो णरो होइ ॥ 137|| अर्हत्परमदेवं यो वन्दते परमभक्तिसंयुक्तः । त्रिलोकवन्दनीयोऽचिरेण च स नरो भवति ॥ 137|| मनुष्य परम भक्तिभाव से युक्त होकर उन परम देव अर्हन्त परमात्मा की वन्दना करता है, वह शीघ्र ही तीनों लोकों के लिये वन्दनीय हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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