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धर्मरसायन
सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह जिसके हृदय में सर्वदा प्रवाहित होता है, कर्मरूपी बालू का आवरण उसे बन्धन में नहीं डाल सकता ।
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सम्मत्तरयणलब्भे णरयतिरिक्खेसु णत्थि उववाओ । जण मुअइ सम्मतं अहवण बंधाउसो पुव्वं ॥ 141
सम्यक्त्वरत्नलब्धे नरकतिर्यक्षु नास्ति उपपादः । यदि न मुञ्चति सम्यक्त्वं अथवा न बन्ध आयुषः पूर्वम् ॥14॥ सम्यक्त्वरूपी रत्न की प्राप्ति हो जाने पर जीव को नरक एवं तिर्यक् गतियों में नहीं जाना पड़ता, शर्त यह है कि उसने सम्यक्त्व को न छोड़ा हो अथवा उसे पूर्व में उन गतियों का बन्ध न हुआ हो ।
पंचयअणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तिण्णेव । चचारि य सिक्खावययाइं सायारो एरिसो धम्मो ॥ 142||
पञ्चाणुव्रतानि गुणव्रतानि भवन्ति त्रीण्येव । चत्वारि च शिक्षाव्रतानि सागार एतादृशो धर्मः ॥142||
जिसमें पाँच अणव्रत हैं, तीन गुण व्रत हैं तथा चार शिक्षा व्रत हैं - इस प्रकार का धर्म ही सागार धर्म है ।
देवयपियरणिमित्तं मंतोसहजंतभयणिमित्तेण । जीवा ण मारियव्वा पढमं तु अणुव्वयं होइ ॥ 143॥
देवतापितृनिमित्तं मन्त्रौषधयन्त्रभयनिमित्तेन । जीवा न मारयितव्याः प्रथमं तु अणुव्रतं भवति ॥143||
देव तथा पितरों के निमित्त से तथा मन्त्र, यन्त्र, औषधि अथवा भय के कारण जीवों को नहीं मारना चाहिए - यह (अहिंसा नामक) प्रथम अणुव्रत है।
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