SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मरसायन -46 वागादीहि असच्चं परपीडयरं तु सच्चवयणं पि। वजंतस्सणरस्सहुविदियं तुअणुव्वयं होइ।।144|| वागादिभिरसत्यं परपीडाकरं तु सत्यवचनमपि । वर्जतो नरस्य हि द्वितीयं तु अणुव्रतं भवति ।।144|| असत्य वचन तथा परपीडाकारक सत्यवचन का वाणी से त्याग करनामनुष्य का द्वितीय (सत्य नामक) अणुव्रत है। गामे णयरे रणे वट्टे पडियं च अहव विस्सरियं । णादाणं परदव्वं तिदियं तु अणुव्वयं होइ ।।145।। ग्रामे नगरे अरण्ये वर्त्मनिपतितंचाथवा विस्मृतम्। नादानं परद्रव्यं तृतीयं तु अणुव्रतं भवति ||145|| ग्राम, नगर, वन तथा मार्ग में पड़े हुए अथवा किसी के द्वारा भुला दिये गये (विस्मृत) परद्रव्य का ग्रहण नहीं करना-यह (अस्तेय नामक) तृतीय अणुव्रत है। मायावहिणिसमाओ ददुव्वाओ परस्स महिलाओ। सयदारे संतोसो अण्णुव्वयं तं चउत्थं तु 114611 मातृभगिनिसमाना दृष्टव्याः परस्य महिलाः । स्वदारे सन्तोषोऽणुव्रतं तच्चतुर्थं तु ||146|| परायी स्त्रियों को माता और बहिन के समान समझना चाहिए तथा अपनी पत्नी से ही सन्तोष करना चाहिए-यह (ब्रह्मचर्य नामक) चतुर्थ अणुव्रत है। धणधण्णदुपयचउप्पयखेत्तण्णादियाण दव्वाणं । जं किज्जइ परिमाणं पंचमयं अणुव्वयं होइ।।1471 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy