Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 53
________________ धर्मरसायन यदि तुम परमपद तथा निर्बाध अनुपम सुख चाहते हो तो तीनों लोकों के द्वारा वन्दित चरणों वाले भगवान् जिनेन्द्र को प्रयत्नपूर्वक प्रणाम करो । जम्हा अरिहंत हवइ णिराउहो णिब्भओ हवे तम्हा । जह्मा हु अणंतसुहो इच्छीविरहिओ हवे तम्हा || 132|l यस्मात् अर्हन् भवति निरायुधः निर्भयो भवेत् तस्मात् । यस्माद्धि अनन्तसुखं स्त्रीविरहितो भवेत् तस्मात् ॥32॥ क्योंकि अर्हन्त परमात्मा निर्भय हैं अतः वे निरायुध हैं। इसी प्रकार क्योंकि अर्हन्त परमात्मा अनन्त सुख से युक्त हैं अतः वे स्त्री से भी रहित हैं अर्थात् उन्हें स्त्री की अपेक्षा नहीं है । जम्हा मुहतण्हाओ तस्स ण पीडंति परमघोराओ । तम्हा असणं पाणं तिलोयणाहो ण सेवेइ ॥13 ॥ यस्मात् क्षुत्तृष्णे तं न पीडयतः परमघोरे । तस्मादर्शनं पानं त्रिलोकनाथो न सेवते ||133|| 42 क्योंकि अर्हन्त परमात्मा को अति दारुण भूख-प्यास भी पीडित नहीं करती इसलिए वे तीनों लोकों के स्वामी (भगवान् अर्हन्त) भोज्य एवं पेय पदार्थों का सेवन भी नहीं करते । पूजारिहो दु जह्मा धरणिंदणरिंदसुरवरिंदाणं । अरिरयरहस्समहणो अरहंतो वुच्चए तह्मा ॥ 134 पूजार्हस्तु यस्मात् धरणेन्द्रनरेन्द्रसुरवरेन्द्राणाम् । अरिरजरहस्यमथनः अर्हन् उच्यते तस्मात् ॥ 134|| क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् धरणेन्द्र, नरेन्द्र तथा देवेन्द्र के लिये भी पूजनीय हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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