Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 45
________________ धर्मरसायन जलथलआयासयले सव्वेसु वि पव्वएसु रुक्खेसु । तिणजलकट्टपाहणाइसु जो परिवसइ महुमणो 1106। होऊण परमदेवो कण्हो परिवसइ जए सव्वे। तोछेयणाइओसो पावइ दुक्खं किण्ण किरियाओ॥10॥ जलस्थलाकाशतले सर्वेषु अपि पर्वतेषु वृक्षेषु । तृणज्वलनकाष्ठपाषाणादिषु यो परिवसतिमधुमथः ।। 106|| भूत्वा परमदेवः कृष्णः परिवसति जगति सर्वस्मिन्। तर्हि छेदनादितः स प्राप्नोति दुःखं किं न क्रियातः||107|| जो मधुरिपु (मधु नामक दानव का संहारक) जल, स्थल, आकाश, सभी पर्वतों एवं वृक्षों, तृण (घास), अग्नि, काष्ठ, पत्थर आदि में निवास करता है; अथवा जो कृष्ण परम देव होकर समस्त विश्व में निवास करता है; तो उसे छेदन आदि क्रियाओं से दुःख क्यों नहीं प्राप्त होगा? अर्थात् अवश्य प्राप्त होता होगा। संसारम्मि वसंतो परमप्पो जइ जए हवे कण्हो । संसारत्था जीवा सव्वे ते किण्ण परमप्पा || 108|| संसारे वसन् परमात्मा यदि जगति भवेत् कृष्णः । संसारस्था जीवाः सर्वेते किं न परमात्मानः || 108|| यदि संसार में निवास करता हुआ वह कृष्ण परमात्मा है तो संसार में स्थित समस्तजीवपरमात्मा क्यों नहीं हो सकते? हरिहरबह्मणो वि य महाबला सव्वलोयविक्खादा। तिणि विएकसरीरा तिणि विलोएविपरमप्पा।।109।। जइ होइ एयमुत्ती बम्हाण तिलोयणाय महुमहणो। तो बम्हाणस्स सिरहरेण किं कारणं छिण्णं॥110॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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