Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ 25 - -धर्मरसायन एकेन्द्रियेषु पञ्चसु अनेकयोनिषु वीर्यविहीनः। भुजान: पापफलं चिरकालं हिण्डते जीवः ।।78|| वह जीव शक्तिहीन होकर एकेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय इत्यादि अनेक योनियों में पाप का फल भोगता हुआ दीर्घकाल तक भटकता रहता है। खणणुत्तावणवालणवीहणविच्छेयणाई दुक्खाई। पुवकयपावयम्मो सहइ वराओ अणप्पवसो।।7।। खननोत्तापनज्वालनविहनविच्छेदनादिदुःखानि । पूर्वकृतपापकर्मा सहतेवराक: अनात्मवशः।।79|| पूर्व में पापकर्म करने वाला बेचारा जीव (तिर्यक्गति में ) परवश होकर खोदा या गाड़ा जाना, तपाया जाना, जलाया जाना, जोर से आघात किया जाना, काटा जाना आदिदुःखों को सहता है। एवं तिरियगइ सम्मत्ता । एवं तिर्यग्गतिः समाप्ता । इस प्रकार तिर्यक्गति का वर्णन समाप्त हुआ। बहुवेयणाउलाए तिरियगईए भमित्तु चिरकालं । माणुसहवे वि पावइ पावस्स फलाइंदुक्खाई1801 बहुवेदनाकुलायां तिर्यग्गतौ भ्रमित्वा चिरकालम् । मानुषभवेऽपिप्राप्नोतिपापस्यफलानिदुःखानि||80|| अनेक वेदनाओं से युक्त तिर्यक्गति में लम्बे समय तक भटककर जीव मनुष्यभव में भी पाप के फल के रूप में दुःखों को प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82