Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 31
________________ धर्मरसायन वंडंति एकपव्वं बहुदंडया हि णारइया । पुवकयपावयम्मा भासंता कडुयवयणाओ 1831 दण्डयन्ति एकपर्व बहुदण्डका हि नारकाः। पूर्वकृतपापकर्माणोभाषमाणाः कटुकवचनानि।।6।। अनेक दण्डधारण करने वाले नारकी कटुवचन बोलते हुए पूर्वभव में पापकर्म करने वाले प्राणी के एक ही भाग को निरन्तर दण्डित करते हैं । णारइयाणं वेरं छेत्तसहावेण होइ पावाणं । मजारमूसयाणं जह वेरं उल्लसप्पाणं 184|| नारकाणां वैरं क्षेत्रस्वकाले ति पापानाम् । मार्जारमूषकानां यथा वैर नकुलसर्पाणाम् ।।64|| पापीनारकों में क्षेत्रस्वभाव के कारण स्वाभाविक वैर होता है जैसे कि चूहेबिल्ली में तथा नेवले और सर्प में स्वाभाविक वैर होता है। सव्वे वि य रइया णपुंसया होंति हुंडसंठाणा । सव्वे वि भीमरूवा दुल्लेसा दव्वभावेण ||65।। सर्वेऽपिचनारकानपुंसका भवन्ति हुण्डकसंस्थानाः। सर्वेऽपि भीमरूपा दुर्लेश्या द्रव्यभावेन ||65|| सभी नारक हुण्डकसंस्थान वाले एवं नपुंसक होते हैं। वे सभी भयंकर रूप वाले तथा द्रव्यभाव से दुर्लेश्य (दुर्लभ या कठिनाई से चोट पहुँचाने योग्य) होते हैं। णिरए सहाव दुक्खं होई सहावेण सीयउण्हं य । तह हुति दुस्सहाओ घोराओ भुक्खतण्हाओ 186। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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