Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 25
________________ धर्मरसायन -14 पुणरवि धरंति भीमा णेरड्या तस्स पावयम्मस्स। मस्सउभछियं करति हु छुहति तह खारयंकम्मि ||44|| पुनरपि धरन्ति भीमा नारकास्तं पापकर्माणम् । मांसमुभेदं कुर्वन्ति हिस्पृशन्ति क्षारकदमेन ||44|| किन्तु भयानक नारकी उस पापी को पुनः दबोच लेते हैं । वे उसका मांस निकालते हैं और उस पर क्षारयुक्तकीचड़लगाते हैं (इस प्रकार उसे क्षोभित करते हैं)। णीसरिऊण वराओ णासंतो खारयंकमडओ। पुव्वुत्तकमेण पुणो धरंति ते तस्स णारइया ।।45।। निःसृत्य वराकः नश्यन् क्षारकर्दमात् । पूर्वोक्तक्रमेण पुनः धरन्ति ते तं नारकाः ||45|| खारे कीचड़ से निकलकर वह बेचारा वहाँ से किसी प्रकार बच निकलकर पुनः भागता है। लेकिन वे नारकी उसे फिर दबोच लेते हैं। मरणभयभीरुयाणं जीवाणं जो हु जीवियं हरइ। णरयम्मि पावयम्मो पावइतह बहुविहंदुक्खं ।।4811 मरणभयभीरूणां जीवानां यो हि जीवितं हरति। नरके पापकर्माप्राप्नोति तथा बहुविधंदुःरवम्।।46|| जो मृत्यु से भयभीत प्राणियों के प्राणों का हरण करता है वह पापपूर्ण कर्म करने वाला नरक में इसी प्रकार बहुविध दुःख प्राप्त करता है। पीलंति जहा इक्खू जंते छुहिऊण तस्स अवसस्स । कुव्वंति चुण्णचुण्णं सव्वसरीरं मुसंठीहिं ||47|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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