Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 19
________________ धर्मरसायन - 8 गदाप्रहारविद्धः मूर्छा गत्वा महीतले पतति। अतिकण्टकै : तत्र विभिद्यतेतीक्ष्णैः सर्वाङ्गम।।23|| गदा के प्रहार से घायल वह (पापी) मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ता है और वहाँ स्थित पैने तथा अत्यधिक काँटों से उसका अंग-अंग बिंध जाता है। लद्रूण चेयणाए पुणरवि चिंतेइ किं इमे सव्वे। पहरन्ति मज्झ देहं जपंता कडुयवयणाइं ॥24॥ लब्ध्वा चेतनां पुनरपि चिन्तयति किं इमे सर्वे । प्रहरन्ति मम देहं जल्पन्तः कटुकवचनानि ||24|| पुनः होश में आने पर वह विचार करता है कि ये सभी (नरकवासी) कटु वचन बोलते हुए, मेरे शरीर पर प्रहार क्यों कर रहे हैं ? देवयपियरणिमित्तं मंतोसहिजांगभयणिमित्तेण । जं मारिया वराया अणेयजीवा मए आसि ।।25।। जंपरिमाणविरहिया परिग्गहा गिहिया मए आसि। जं खाधं महमंसं पंचुंबर जिव्हलुद्धेण ॥26।। जं भासियं असच्चं तेणिकजं मए कयं आसि । जं तिलमेत्तसुहत्थं परदारं सेवियं आसि ।।27।। जं पीयं सुरयाणं जं च जणो इंभियो मए सव्वो। तस्स हु पावस्स फलं जं जायं एरिसं दुक्खं ।।28।। देवतापितृनिमित्तं मन्त्रौषधियागभयनिमित्तेन । ये मारिता वराका अनेकजीवा मया आसन् ।।25।। यत्परिमाणविरहिताः परिग्रहाः गृहीतामयाआसन्। यत्खादितंमधुमांसं पञ्चोदुम्बराणि जिह्वालुब्धेन ||26|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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