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रिवाज शुरु किए हों - ऐसा देखा जाता है । धर्मार्थीजन ऐसी कोई प्रवृत्ति न करें यही उचित है । अजैनों में कुछ स्थानों में यह प्रथा है, उसकी देखादेखी अपने यहाँ भी कुछ लोगों द्वारा यह प्रवृत्ति शुरु की गई है, जो उचित नहीं है ।
शंका-४३ : शास्त्र में कहा है कि संघर्ष न करें, लेकिन धार्मिक बातों के विवाद खड़े कर, संघर्ष कर जो कोर्ट तक मामला ले जाया जाता है, वह कितना जायज है ?
समाधान-४३ - धर्म जब आत्मीय लगेगा, तभी यह बात समझ में आएगी । सौदोसौ रुपयों जैसी नाचीज चीजों के लिए सगे बाप या भाई के खिलाफ तीन-तीन कोट तक जानेवाले लोग धर्म-सिद्धांतों की रक्षा के अवसर पर “मौन व शांति" की बातें करते हैं - तब आश्चर्य होता है । ___ शास्त्रों में पौद्गलिक, त्याज्य चीजों हेतु संघर्ष करने की मनाही है । व्यक्तिगत मान-अपमान के वशीभूत होकर संघर्ष करने की मनाही है । लेकिन, धर्म, धर्म के सिद्धांत, धर्मगुरु का गौरव, धर्म स्थानों की स्वायत्तता, तीर्थरक्षा, जिनाज्ञा... ऐसे-ऐसे सभी आत्म-हितकः व सर्वजीव-कल्याणकर मुद्दों की रक्षा हेतु अनिवार्य रूप से संघर्ष करने की कहीं भी मना नहीं है । शासन रक्षा हेतु संघर्ष करना - यह भी एक आराधना है । ऐसे अवसर पर मौन रहने में तो साधु के भी पांचों महाव्रतों का भंग हो जाता है ।
हाँ, एक बात जरुर है कि यह संघर्ष करते समय भी हृदय के किसी भी कोने में किसी भी व्यक्ति के प्रति व्यक्तिगत अदावत या वैरभाव, द्वेष, तिरस्कार आदि को भावना नहीं होनी चाहिए । इस संघर्ष में हार-जीत की काषायिक परिणतियाँ भी नहीं स्पर्शनी चाहिए । यह संघर्ष भी विवेक को त्याग कर नहीं होना चाहिए।
न्यायपूर्वक, विनय-विवेकपूर्ण सभी प्रयत्न करने के बावजूद भी यदि सत्य-सिद्धांतों को निःश्वास बनाया जाता हो, सत्य के आराधकों को अवरुद्ध किया जाता हो, सत्य के आराधकों को कहीं भी खड़े रहने की जगह न रहे ऐसी परिस्थिति का आयोजन किया जाता हो, तब अंतिम उपाय के तौर पर न्यायपीठ में गए बिना और कोई चारा नहीं रहता । दिगंबरों ने श्वेतांबर तीर्थों का कब्जा-पूजा आदि का अधिकार पाने के लिए तकलीफें देनी शुरु की, तब श्वेतांबर संघ को उनके सामने न्याय पाने हेतु आखिरकार कोर्ट का ही आश्रय लेना पड़ा था । आज भी लेना पड़ रहा है ।
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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