Book Title: Dharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Author(s): Dharmdhwaj Parivar
Publisher: Dharmdhwaj Parivar

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Page 169
________________ सवाल - ३ चढ़ावा आदि से एकत्र हुआ धर्मद्रव्य भविष्य मे काम आएगा, यह सोचकर अपने संघ में रखना चाहिए अथवा अन्य संघ में जरूरत के अनुसार देना चाहिए ? धर्मद्रव्य लोन के तौर पर अन्य संघ में दिया जा सकता है या नहीं ? देवद्रव्य देकर उसके एवज में साधारण द्रव्य लिया जा सकता है या नहीं ? जवाब - ३ संघ में जिन मंदिर का नवनिर्माण अथवा प्राचीन जिन मंदिर का जीर्णोद्धार, ज्ञानभंडार निर्माण आदि कोई भी कार्य श्रावक संघ को स्वद्रव्य से ही करना चाहिए। जब संघ स्वद्रव्य से करने में सक्षम न हो तो ही, देवद्रव्य - ज्ञानद्रव्य आदि की उपज से विभिन्न क्षेत्र के लिए संभव स्थानीय संघ के कार्य करने चाहिए। अपने संघ के कार्य भक्तिपूर्ण उदार श्रावकों को स्वयं चढ़ावा आदि की उपज अन्य संघों में देनी चाहिए। इससे दो लाभ प्राप्त होते हैं। (१) शक्तिमान श्रावकों को स्वद्रव्य से जिनभक्ति-गुरुभक्ति व ज्ञानभक्ति आदि का लाभ मिलता है और (२) परगामादि के असमर्थ संघों में द्रव्य के अभाव से अधूरे जिन मंदिरादि के कार्य पूर्ण करने का लाभ मिलता है। स्थानीय संघ की द्रव्य खर्च करने की क्षमता न हो और कार्य अनिवार्य हो तो संघ में हुई अलग-अलग विभागों की उपज की रकम स्थानीय संघ के ही, संबंधित विभाग में शास्त्रनीति से उपयोग करना निषिद्ध नहीं है। निकट भविष्य में कार्य करने का आयोजन हो तो भी वह द्रव्य स्थानीय संघ में रखने का भी निषेध नहीं है। परन्तु यदि ऐसा कार्य न हो तो निश्चित रूप से अन्य संघों के संबंधित अधूरे कार्य पूरे करने के लिए वह द्रव्य देना ही चाहिए। क्योंकि फलतः तो प्रत्येक संघ, जैनशासन नामक मुख्य संस्था की उप संस्थाएं ही हैं। प्रत्येक संघ में हुई उपज भी जैन शासन की ही उपज है। उपशाखा में हुई उपज जैसे मुख्य शाखा, अपनी अन्य जरूरतमंद उपशाखा में देकर उस शाखा को मजबूत करती है। वैसा ही इसमें भी समझें। दूसरी बात यह है कि धर्मद्रव्य की राशि ‘लोन' के तौर पर दी जा सकती है या नहीं ? इस बारे में यदि अपना श्रीसंघ सक्षम हो तो ऐसा करने की जरूरत नहीं है। अभी एक संघ स्वच्छ भावना से उदारतापूर्वक रकम अन्यत्र देगा तो भविष्य में अन्य संघ भी जरूर ऐसी ही उदारता दिखाएंगे। किन्तु जब स्थानीय संघ में भविष्य में करने योग्य कार्य आंखों के सामने हों तो अल्पकाल के लिए अन्य संघ को लोन के तौर पर रकम देनी चाहिए। उस संघ में कार्य पूर्ण होने पर अनुकूलतानुसार वापस ली जा सकती है। जैन शासन रूपी मुख्य संस्था की उप शाखाएं इस प्रकार एक दूसरे की मदद करें यह उत्तम मार्ग है। अज्ञानतावश अथवा ममत्व के वश होकर उपज की रकम एकत्र ही करें और जरूरत के अनुसार उपयोग न करें अथवा न दें, यह दोष का कारण है। | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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