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परन्तु
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जैन संस्थाएं जैन धर्म की उपरोक्त मूलभूत व्यवस्था संचालन - प्रसंचालन पद्धति को ही मानता है, उस पर श्रद्धा रखता है और जब भी ट्रस्ट के अस्तित्व व व्यवस्था संबंधी प्रश्न खड़े हों तब इस मूलभूत व्यवस्था - प्रसंचालन-संचालन पद्धति का ही पूर्ण निष्ठा से अनुसरण करने के लिए कटिबद्ध रहेंगे। यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए ।
आज वैकल्पिक व्यवस्था के अभाव में धार्मिक व धर्मादा संस्था के कानून व नियमों को ध्यान में रखते हुए संघ की चल-अचल सम्पत्ति की सुरक्षा, खर्च आदि के लिए ट्रस्ट व्यवस्था तैयार करना जरूरी है। संघ के सदस्यों का विश्वास हासिल करने की दृष्टि से भी यह व्यवस्था जरूरी लगती है ।
ट्रस्ट की स्थापना रजिस्ट्रेशन करने से कानूनी ढंग से जो सुविधाएं मिलती हैं वे निम्नानुसार हैं।
१. संघ की चल-अचल सम्पत्ति को कानूनी दर्जा प्राप्त होता है। इन सम्पत्तियों के संदर्भ में संस्था के मालिकाना अधिकार सुरक्षित होते हैं।
२. जैन धर्म व संघ के अधिकारों के लिए अदालती कार्यों में वैध दर्जा प्राप्त होता है।
३.
. जैन धर्म के तीर्थों व स्थानीय संघों की संपत्ति के संदर्भ में कोई व्यक्ति अवैध तरीके
से हक जताए अथवा दावा करे तो उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जा सकती है।
४. ट्रस्ट स्थापना करने से संघ के सात क्षेत्रों के द्रव्य संचालन में पारदर्शिता आती है। धर्म द्रव्य की आय तथा खर्च के सभी श्रोत, दाताओं के लिए पारदर्शिता रहती है। परिणामस्वरूप दाता का संस्था पर विश्वास मजबूत बनता है।, भविष्य में दान का भाव और प्रवाह बढ़ता है।
५.
वैध ट्रस्ट होने से धर्मादा करने वाले व्यक्ति को कर में राहत व मुक्ति भी मिलती है। ६. ट्रस्ट की स्थापना करने से ट्रस्ट के नाम से बैंक में खाते को वैध दर्जा मिलता है। ट्रस्ट के नाम से शास्त्रीय मर्यादानुसार सातों क्षेत्र के अलग-अलग खाते खुलवाकर यदि संचालन किया जाए तो संबंधित खाते का द्रव्य अन्य विभाग में खर्च होने की संभावना नहीं रहती है।
७. धर्मद्रव्य की आय का शास्त्रीय पद्धति से सात क्षेत्रादि में विभागीकरण करके विविध क्षेत्र की रकम का ब्याज हासिल करके विविध क्षेत्र के द्रव्य की वृद्धि करनी चाहिए।
८. धर्मद्रव्य की आय, ट्रस्ट के नाम से रसीद देकर रकम कानूनी ढंग से जमा की जा सकती है। बैंक आदि में एफ. डी. (फिक्स डिपोजिट) आदि की रसीद भी प्राप्त की जा सकती है।
| धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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