Book Title: Dharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Author(s): Dharmdhwaj Parivar
Publisher: Dharmdhwaj Parivar

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Page 146
________________ विजया-नन्दसूरिजी महाराजश्री के श्रमण-समुदाय में अरे स्वयं पू.आ.भ. श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराजश्री के समुदाय में भी स्वप्नद्रव्य की उपज देवद्रव्य में ही जाती थी । यह शास्त्रानुसारी और सुविहित परम्परामान्य प्रणाली है, जिसे पू. विद्वान् मुनिराजश्री चतुरविजयजी म. जैसे साहित्यकार और अनेक शास्त्र-ग्रन्थों के सम्पादकृसंशोधक तथा पू.आ.भ. श्री विजय-वल्लभसूरि महाराजश्री के आज्ञावर्ती भी मानते थे और उसके अनुसार प्रवृत्ति करते थे । नीचे प्रकाशित किया जानेवाला उनका यह पत्र में इस बात की प्रतीति कराता है । पू. पाद आत्मारामजी महाराज का श्रमण-समुदाय भी स्वप्नों की आय को देवद्रव्यं में ले जाने का पक्षधर था और है । एक महत्वपूर्ण पत्र व्यवहार : ता. ६-७-१७ बम्बई से लि. मुनि चतुरविजयजी की तरफ से भावनगर मध्ये चारित्रपात्र मुनि श्री भक्तिविजयजी तथा यशोविजयजी योग्य अनुवंदना सुखशाता वांचना । आप का पत्र मिला । उत्तर क्रम से निम्नानुसार है - . पाटन के संघ की तरफ से, आप के लिखे. अनुसार कोई ठहराव हुआ हो, ऐसा हमारे सुनने में या अनुभव में नहीं हैं, परन्तु पोलीया उपाश्रय में अर्थात् यति के उपाश्रय में बैठनेवाले स्वप्नों के चढ़ावे में से अमुक भाग उपाश्रय खाते में लेते हैं, ऐसा सुना है, जब कि पाटन के संघ की तरफ से ऐसा (स्वप्नों की आय को उपाश्रय में ले जाने के लिए) कोई ठहराव नहीं हुआ है । तो गुरुजी को अनुमति-सम्मति कहां से हो, यह स्वयं सोचने की बात है । विघ्नसंतोषी व्यक्ति दूसरों की हानि करने के लिए यद्वा तद्वा कुछ कहे उससे क्या ? यदि किसी के पास महाराज के हाथ की लिखित स्वीकृति निकले तो सही हो सकती है अन्यथा लोगों के गप्पों पर विश्वास नहीं करना । मेरी जानकारी के अनुसार कोई भी प्रसंग ऐसा नहीं आया जब स्वप्नों की आय के पैसे उपाश्रय में खर्च करने की उन्होंने सम्मत्ति दी हो । अभी इतना ही । द. : चतुरविजय १२६ धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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