Book Title: Dharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Author(s): Dharmdhwaj Parivar
Publisher: Dharmdhwaj Parivar

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Page 162
________________ संघ की सामग्री से पूजा करने वालों से..... : शास्त्रों में ऐसी स्पष्ट बातों का कथन होने पर भी श्रावकों द्वारा देवद्रव्य से सर आदि की पूजा कराने की बातें शास्त्र पाठों के नाम से की जा रही है और उसमें दिनोंदिन सम्मति देनेवालों की वृद्धि होती जा रही है । जिनपूजा के संबंध में आज अनेक स्थानों पर स्नानादि की व्यवस्था की गई है। परंतु वहाँ क्या होता है वह देखो । नहानेवाले १५०० और पूजा करने वाले ५०० ऐसी दशा है। पूजा करने वाले भी ऐसे पूजा करते हैं मानो उपकार कर रहे हों। पूजा करने के पश्चात् थाली और कटोरी इधर-उधर रख देते हैं और पूजा के वस्त्र उतारकर जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं? पूजा के वस्त्रों के संबंध में भी शास्त्रों में तो इस प्रकार की विधि कही है कि, संभव हो तब तक दूसरों के कपड़े न पहनें और स्वयं के वस्त्र भी शुद्ध रक्खें, अन्यथा आशातना का पाप लगेगा। · कुमारपाल राजा के पूजा करने के वस्त्रों का एक बार बाहड़ मंत्री के छोटे भाई चाहड़ ने उपयोग किया था, इससे कुमारपाल ने उन वस्त्रों को पूजा के लिए नहीं पहने और चाहड़ से नये वस्त्र लाने को कहा। चाहड़ ने कहा कि ये वस्त्र बम्बेरा नाम की नगरी से आते हैं और वहाँ का राजा जो वस्त्र भेजता है, वह उनका एकबार उपयोग करके ही यहाँ भेजता है। तुरंत ही कुमारपाल ने पूजा के वस्त्र अन्य किसी के द्वारा उपयोग में लिये बिना प्राप्त हों - ऐसी व्यवस्था करने की आज्ञा की। इस हेतु कुमारपाल ने विपुल धनराशि खर्च की। क्योंकि शक्ति के अनुसार भावना जागृत हुए बिना नहीं रहती । महाराज श्रेणिक प्रतिदिन जवला बनवाते थे। ऐसे-ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। यह तुमने सुना है या नहीं? सुनने के पश्चात् भी तुम्हारी पूजा की सामग्री तुम्हारी शक्ति के अनुसार है? अपने यहाँ पश्चानुपूर्वी क्रमानुसार विवेचन उपलब्ध है, पूर्वानुपूर्वी क्रम से भी विवेचन आता है और अनानुपूर्वी क्रम से भी विवेचन आता है । यहाँ देवपूजा की बात बाद में रखी गई और संविभाग की बात पहले प्रस्तुत की गई । उसमें जो हेतु है वह समझने योग्य है । स्वयं की वस्तु का त्याग करने की और उसके सदुपयोग करने की वृत्ति के बिना यदि पूजा की जाय तो ऐसी पूजा का कोई महत्त्व नहीं होता। सामान्य स्थिति में भी उदार हृदय का श्रावक जिस रीति से देवपूजा कर सकता है, उस प्रकार से तो कृपण श्रीमंत भी देवपूजादि नहीं कर सकता । १४२ धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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