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चेइदव्व विणासे तद्, दव्व, विणास दुविहभेए । साहु उविक्खमाणो अनंत - संसारिओ होई ।।
चैत्यद्रव्य यानी सोना चांदी रुपये आदि भक्षण से विनाश करे और दूसरा तद् द्रव्य यानी २ प्रकार का जिनमंदिर का द्रव्य नया खरीद किया हुआ और दूसरा पुराना मंदिर के ईंट, पत्थर, लकडादि का विनाश करता हो और विनाश करनेवाले की यदि साधु भी उपेक्षा करता हो तो वह भी अनंतसंसारी होता है ।
चेइअ दव्वं साधारणं च भक्खे विमूढमणसा वि ।
परिभमइ, तिरीय जोणीसु अन्नाणित्तं सया लहई ।। (संबोध प्रकरण गा. १०३)
संबोध प्रकरण में कहा है कि देवद्रव्य और साधारण द्रव्य मोह से ग्रसित मनवाला भक्षण करता है, वह तिर्यंच योनि में परिभ्रमण करता है और हमेशा अज्ञानी होता है ।
* पुराण में भी कहा है कि
देवद्रव्येन या वृद्धि गुरु द्रव्येन यद् धनं ।
तद्धनं कुलनाशाथ मृतो पि नरकं व्रजेत् ।।
देवद्रव्य से जो धनादि की वृद्धि और गुरुद्रव्य से जो धन प्राप्त होता है वह कुल का नाश करता है और मरने के बाद नरक गति में ले जाता है ।
चेइअदव्वं साधारणं च जो दुइ मोहिय- मईओ ।
धम्मं च सो न याणइ अहवा बद्धाउओ नरए ।। (संबोध प्रकरण गा. १०७) जो मनुष्य मोह से ग्रस्त बुद्धिवाला देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य और साधारण द्रव्य को स्वयं के उपयोग में लेता है, वह धर्म को नहीं जानता है और उसने नरक का आयुष्य बांध लिया है, ऐसा समझना चाहिए ।
चेइअ - दव्व-विणासे रिसिघाए पवयणस्स उड्डाहे ।
संजइ - चउत्थभंगे मूलग्गी बोहिह - लाभस्स ।। (संबोध प्रकरण गा. १०५ )
देवद्रव्य का नाश, मुनि की हत्या, जैन शासन की अवहेलना करना - करवाना और साध्वी के चतुर्थव्रत को भंग करना बोधिलाभ (समकित ) रूपी वृक्ष के मूल को जलाने के लिए अग्नि समान है ।
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धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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