Book Title: Dharm sharmabhyudayam
Author(s): Harichandra Mahakavi, Kashinath Sharma,
Publisher: Nirnaysagar Yantralaya Mumbai

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Page 298
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋषभपञ्चाशिका। १२९ [शारय इव बन्धवधमरणभागिनो जिन न भवन्ति त्वयि दृष्टे । अक्षराप द्वियमाणा जीवाः संसारफलके ॥] अवहीरिआ तए पहु निन्ति निओगिकसङ्खलाबद्धा । कालमणन्तं सत्ता समं कयाहारनीहारा ॥ ३३ ॥ [अवधीरितास्त्वया प्रभो नयन्ति निगोदै(योग)कशृङ्खलाबद्धाः । कालमनन्तं सत्त्वा समं कृताहारनीहाराः ॥] जेहि तविआण तवनिहि जायइ परमा तुमम्मि पडिवत्ती। दुक्खाइँ ताइँ मन्ने न हुन्ति कम्मं अहम्मस्स ॥ ३४ ॥ [यैस्तापितानां तपोनिधे जायते परमा त्वयि प्रतिपत्तिः । दुःखानि तानि मन्ये न भवन्ति कर्माधर्मस्य ॥] होही मोहच्छेडं तुह सेवाए धुवत्ति नन्दामि । जं पुण न वन्दिअव्वो तत्थ तुमं तेण झिजामि ॥ ३५ ॥ [भविष्यति मोहच्छेदस्तव सेवया ध्रुव इति नन्दामि । यत्पुनर्न वन्दितव्यस्तत्र त्वं तेन क्षीये ॥] जा तुह सेवाविमुहस्स हन्तु मा ताड मह समिद्धीओ। अहियारसंपया इव पेरन्तविडम्बणफलाओ ॥ ३६॥ [यास्तव सेवाविमुखस्य भवन्तु मा ता मम समृद्धयः । अधिकारसंपद इव पर्यन्तविडम्बनफलाः ॥] भित्तूण तमं दीवो देव पयत्थे जणस्स पयडेइ । तुह पुण विवरीयमिणं जइक्कदीवस्स निव्वडिअम् ॥ ३७ ॥ [भित्त्वा तमो दीपो देव पदार्थाञ्जनस्य प्रकटयति । तव पुनर्विपरीतमिदं जगदेकदीपस्य निवृत्तम् ॥] मित्थत्तविसपसुत्ता सचेयणा जिण न हुन्ति किं जीवा । कन्नम्मि कमइ जइ कित्तिअं पि तुह वयणमन्तस्स ॥ ३८ ॥ [मिथ्यात्वविषप्रसुप्ताः सचेतना जिन न भवन्ति किं जीवाः । कर्णयोः कामति यदि कियदपि त्वद्वचनमन्त्रस्य ॥] For Private and Personal Use Only

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