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विकास हुआ है ।
प्राकृत भाषा के भेदों के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत मिलते हैं । भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में प्राकृत की सात भाषाओं का उल्लेख किया है
१. मागधी २ अवन्तिजा
३. प्राच्या
४. शौरसेनी
संस्कृत नाटकों में विभिन्न प्राकृत भाषा की बोलियां मिलती हैं । प्रसिद्ध वैयाकरण वररुचि ने महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी और शौरसेनीइन चार भाषाओं को प्राकृत के अन्तर्गत माना है ।
हेमचन्द्र ने इन चारों के अतिरिक्त चूलिका पैशाची, आर्ष, अर्धमागधी और अपभ्रंश का उल्लेख भी किया है । त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज, नरसिंह आदि वैयाकरणों ने हेमचन्द्र का अनुसरण किया है ।
प्राकृत भाषा के दस भेद भी मिलते हैं
१. पालि २. पैशाची
३. देशी ।
३. चूलिका पैशाची
४. अर्धमागधी
५. जैन महाराष्ट्री
५. अर्धमागधी
६. बाह्लीकी ७. दाक्षिणात्या'
मार्कण्डेय ने प्राकृत की सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है । प्राकृत में तीन प्रकार के शब्दों का समावेश है --- १. तत्सम २. तद्भव
६. अशोकलिपि
७. शौरसेनी
८. मागधी
६. महाराष्ट्री १०. अपभ्रंश
संस्कृत-निष्ठ शब्द तत्सम हैं । ये बिना किसी रूप परिवर्तन के प्राकृत में प्रयुक्त हैं । जैसे— जल, कमल, देव आदि । संस्कृतसम', तत्तुल्य' और समान' शब्द भी तत्सम के वाचक हैं |
संस्कृत के जो शब्द वर्णागम, वर्णविकार या ध्वनि - परिवर्तन से अपना स्वरूप बदल लेते हैं, वे तद्भव हैं । जैसे - कार्य - कज्ज, ऋषभ - उसभ,
३. प्राकृतलक्षण १।१ । ४. वाग्भटालंकार २२ ।
५. नाट्यशास्त्र १७१३ ।
१. नाट्यशास्त्र १७/४८ : मागध्यवन्तिजा प्राच्या, शौरसेन्यर्धमागधी । बाह्लीका दाक्षिणात्याश्च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ॥ २. नाट्यशास्त्र १७।३ : त्रिविधं तच्च विज्ञेयं नाट्ययोगे समासतः । समानशब्दं विभ्रष्टं देशागतमथापि च ॥
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