Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। नित पी० ॥ २ ॥ कल्पानकतरु उपवनपरिनी, तरनी भवजलतारी । वधविदारन पैनी छैनी, मुक्तिनसनी सारी ॥ नित पी० ॥ ३॥ स्वपरस्वरूप प्रकाशनको यह, भानु फला अविकारी। मुनिमन कुमुदिनि मोदन-शशिमा, शमसुखसुमनसुवारी ॥ निजाको सेवत वेवंत निनपद, नशत अविद्या सारी। तीनलोकपति पूजत जाको, जान त्रिजगहितकारी ॥ नित० ॥५॥ कोटि जीमसौं महिमा बाकी, कहि न सके पविधारी। दौल अल्पपति केम कहै यह, अधम उधारनहारी ।। नित० ॥ ६ ॥ __ मत कीज्यौ जी यारी, पिनगेह देह जह जान के, मन की० ॥ टेक ॥ मात-तात रज वीरजसौं यह, उपनी मलफुलवारी । अस्थिमाल पलनसाजालकी, लाल लाल जलक्यारी ।। मत की० ॥ १॥ कर्मकरंगवलीपुतली यह, मूत्रपुरीषभंडारी । चर्ममंडी रिपुकर्मघडी धन, धर्म चुराधन १" मंगलतरुहि उपावन धरनी" ऐसा भी पाठ है। २ नौका ३ कर्मबंध । ४ तीसी छणी | ५ मुनियोंकी मनरूपी कुमोदिनीको प्रफुल्लित करनेकेलिये चन्द्रमाकी रोशनी । ६ समता-रूपी सुख ही हुमा पुष्प, उसके लिये अच्छी बाटिका १७ जानते वा अनुभपते हैं। ८ वीन भुवनके रामा इन्द्रादिक अपारी इन्द । १० पृणाका घर 1१५ हार मार नसोंके समूहकी। १२ कर्मरूपी हरिनोंको फंसानेवासी जगहपर पुतलीके पमान । १३ विधा

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