Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ १८ दौलत - जैनपदसंग्रह | मोही जीव भरमतमतें नहि, वस्तुस्वरूप लखे है जैसें । मोही ० ॥ टेक ॥ जे जे जड़ चेतनकी परनति, ते अनिवार परन वै वैसें । वृथा दुखी शठ कर विकलपै यौं, नहि परिनवैं परिनवें ऐसे || मोहि० ॥ १ ॥ अशुचि सरोग समल ज. डमूरत, लखत बिलात गगनधन जैसे । सो वन ताहि निहार अपनो, चहत भवाघ रहें थिर कैसें || मोहि० ॥ २ ॥ सुत-विय बंधु - वियोगयोग यौं, क्यों सराय जन निकले पैसें ॥ चिलखत हरखत शठ अपने लखि, रोबत हॅसत मत्तनन जैसे || मोहि० ॥ ३ ॥ जिन-रवि-चैन फिरन लहि जिन निज रूप सुभिन्न कियौ पर मैसें ॥ यो जगमौल दौलको चिर थित मोहविलास निकास हृदैसैं || मोदी० ॥ ४ ॥ ६९ ज्ञानी जीव निवार भरमतम, वस्तुस्वरूप विचारत ऐसें । ज्ञानी० ॥ टेक ॥ सुत तिथ बंधु धनादि प्रगट पर, ये मुझर्ते हैं भिन्नपदेशै । इनकी परनति है इन भाश्रित, जोइन मात्र परनवें वैसें ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ देह अचेतन चेतन में इन प. १ जिसका निवारन नहीं होसकता । २ जैसा परिणमन होना चाहिये "वैखा । ३ इसप्रकार नहीं परिणमै किन्तु इसप्रकार अपनी इच्छानुसार परिण । ४ निकलें । ५ प्रवेश करें ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83