Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 64
________________ ६२ दौलत-जैनपदसंग्रह । छाडि परिग्रहभारा हो । इन्द्रिय दमन वमन मद कीनो, विषय कषाप निवारा हो ॥ कवधों ॥१॥ कंचन काच बरावर जिनके, निंदक बंदक सारा हो । दुर्धर तप तपि सम्यक निज घर, मनवचतनकर धारा हो । करधों ॥ ॥२॥ ग्रीषम गिरि हिम सरितातीरै, पावस तस्तर ठारा हो । करुणाभीने चीन सयावर, ईपिय समारा हो । फवधों० ॥३॥ मार मार व्रत धार शील दृढ, मोह महापल टारा हो । मास छमास उपास वास वन, प्रासुक करत महारा हो ॥ कवधों ॥ ४॥ भारतरौलेश नहि जिनके, धर्म शुकल चित धारा हो । ध्यानारूढ़ गूढ़ निन आतम, शुधउपयोग विचारा हो ॥ कवधों० ॥ ५ ॥ आप तर्हि औरनको तारहि, भवजलसिंधुअपारा हो। दौलत ऐसे जैनजतिनको, नितप्रति धोक हमारा हो ॥ कवों० ॥६॥ कुमति कुनारि नहीं है मली रे, सुमति नारि सुंदर गुन-पाली, कुमति० ॥ टेक ॥ वासौं विरचि रचौ नित यासौं, जो पायो शिवधाम गली रे। वह कुवजा दुखदा यह राधा, १ एकसे । २ 'लीन' ऐसा भी पाठ है । ३ कामदेवको मारकर । ४"धर तप तपि धमकित गहि निज चित, करि मनवचन सारा हो, मासमास उपवास पासवन" ऐसा भी पाठ है। ५ मार्तध्यान । रौद्रध्यान । धर्मध्मान ! शुक्लध्यान ।

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