Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। ७३ यारा तौ वैनामें सरधान घणो छै, म्हारे छवि निर. खत हिय सरसावै । तुमेधुनिधन परचहन-दहनहर, वर ममता-रस-झरवरसावै । थारा०॥शा रूपनिहारत ही बुधि है सो निजपरचित जुदे दरसावै । मैं चिंद अकलंक अमक विर, इन्द्रियसुखदुख जडफरसावै । थारा० ॥२॥ ज्ञान विरागसुगुनतुम विनकी, प्रापतिहित सुरपति तरसावै । मुनि पडभाग लीन तिनमें नित, दौल धवल उपयोग रसाचे ॥ थारा० ॥३॥ त्रिभुवनग्रानन्दकारी जिन छवि, यारी नैननिहारी । त्रिभु० ॥टेक ॥ ज्ञान अपूरव उदय भयो अब, या दिनकी बलिहारी। मो उर मोद वदो जु नाथ सो, कथा न जात उचारी। त्रिभु० ॥१॥ सुन धनघोर मोरमुद ओर न, ज्यों निधि पाय मिखारी । जाहि लखत झट करत मोह रज होय सो भवि अविकारी। त्रिभु० ॥२॥जाकी सुंदरता सु पुरन्दर-शोम लजावनहारी | निज अनुभूति सुधाछवि १ वचनोंमें । २ आपका वाणीरूप मेघ । ३ पर पदार्थोकी चाहरूपी अग्निको वुझानेवाला है। ४ चैतन्यस्वरूप । ५ इंद्रियजन्य सुखदुख जट का स्पर्श करते हैं मेरा नही, मुझे सुखदुख नहीं होते। ६ इन्द्र । ७ वि. पद निर्मल । ८ इंद्रकी शोभा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83