Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 73
________________ दौलत - जैनपदसंग्रह | ७१ फल, कोलग बीच रहावेगा । क्यों न विचार करै नर खिर, मरन महीमें आवेगा || जम मान० ॥ २ ॥ सोक्त मृत नागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावैगा । जैसे कोऊ छिपे सदासों, कबहूं अवशि पलावैगा ॥ जम आन० || ३ || कहूं कबहूं कैसे हू कोऊ, अंतकेसे न बचावैगा । सम्यकवानपियूष पिये सौं, दौल अमरपद पावैगा ॥ जम आन० ॥ ४ ॥ २०७ aisa क्यों नहि रे, हे नर ! रीति भयानी । वारवार सिख देव सुगुरु यह, तू दे आनाकानी || छांड़त ॥ टेक ॥ विषय न तजतन भजत बोध व्रत, दुखसुखजाति न जानो । शर्म च न लहै शठ ज्यों घृतहेत विलोक्त पानी ॥ छांडत ० ॥ १ ॥ वन घन सदन स्वजनजन तुझ्सों, ये परजाय विरानी | इन परिनमन विनशउपजन सों, तैं दुद सुखकर मानी || छांडत० || २ || इस अज्ञानतै चिरदुख पाये तिनकी अकथ कहानी | ताको तज हग-ज्ञान चरन भज, निजपरनवि शिवदानी || छांडत० || ३ || यह दुर्लभ नरभव सुसंग कहि, तच्च लखावन वानी । दौल न कर अव पर में ममता, पर समता सुखदानी ॥ छांटस • ॥ ४ ॥ १ भागेगा । २ जमराजसे । ३ सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत ।

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