Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 81
________________ दौलत-बैन पर संग्रह | ७९ र्लभ भाई ॥ मनवच० ॥ ४ ॥ यौं दुर्लभ नरदेह कुधी जे, विषयनसंग खोवें । ते नर मूढ अजान सुधारस, पाय पांव धावें ॥ मनवच० ॥ ५ ॥ दुर्लभ नरभव पाय सुधी जे, जैन धर्म | दौलत ते अनंत अविनाशी । सुख शिवका धेवें || मनवचतन करि० ॥ ६ ॥ १२० मोहिड़ा रे जिय ! हितकारी न सीख सम्हारै । भवन भ्रमत दुखी लखि याको, सुगुरुदयालु उचारै ॥ मोहि० ॥ ॥ टेक ॥ विषय भुजंगम संग न छोडत, जो प्रनन्तभव मारै । ज्ञान विराग पिग्रुप न पीवत, जो भवव्याधि विहारै ॥ मोहि० ॥ १ ॥ जाके संग दुरें अपने गुन, शिवपद अन्तर पारें । ता तनको अपनाय आप चिन, मृरतको न निहारै || मोहि० ॥ २ ॥ सुत दारा धन काज साज अघ, आपन कान विगारे । करत आपको प्रति आपकर, ले कृपान नल दारे || मोहि० || ३ || सही निगोद नरककी वेदन, ये दिन नाहि चितारै । दौल गई सो गई वह नर, घर हग चरन सम्हारै ॥ मोहिडा० ॥ ४ ॥ 1 १२१ मेरे है वा दिनकी सुधरी । मेरे० ॥ टेक ॥ तनविन वसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टिधरी । मेरे ० ॥ १ मुखे । २ जाने अनुभव करें । ३ तलवार लेकर जलको काटता है, ।

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