Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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दौलत-जैनपदसंग्रह। ६५ चादनीको ज्यौ, त्यौं नहिं धनी ज्ञेयको झानी । वस्तुरूप यौं तू यौं ही शठ, हटकर परत सोंज विरानी ॥ चेतन० ॥२॥ ज्ञानी होय अज्ञान राग रुप-कर निज सहज स्वच्छता हानी। इन्द्रिय जड तिन विषय अचेतन, तहां अनिष्ट इष्टता ठानी ॥चेतन० ॥३।। चाहै सुख, दुख ही अवगाहै, अव सुनि विधि जो है सुखदानी ।दौल अापकरि आप आपमें, ध्याय लाय लय समरससानी ॥ चेतन० ॥ ४ ॥
चेतन कौन अनीति गही रे, न मानें सुगुरु कही रे । चेतन० ॥ जिन विषयनवश बहु दुख पायो, तिनसौं प्रीति ठही रे। चेतन० ॥१॥ चिन्मय है देहादि जड़नसौं वो मति पागि रही रे । सम्यग्दर्शनज्ञान भाव निज तिनकौं गहत नहीं रे । चेतन० ॥२॥जिनप पाय विहाय रागरुष, निजहित हेत यही रे। दौलत जिन यह सीख धरी उर, तिन शिव सहज लही रे ॥ चेतन० ॥३॥
चेतन तें यों ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो । चेतन० ॥ टेक ॥ न्यौं निशितम, निरख जेवरी,
* 'निजसुधासुरुचि गहि' ऐसा भी पाठ है।
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