Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 66
________________ ६४ दौलत - जैनपद संग्रह | काय लगाय चरन चित, ज्ञान दिये विच घर ले रे । घडि वडि० ॥ २ ॥ दौलतराम, धर्मनौका चढि, भवसागर विर ले रे ॥ घडि घडि० ॥ ३ ॥ १५ चिन्मूरत हग्घारीकी मोहि, रीति लगत है अटापटी | चिन्मू० ॥ टेक ॥ वाहिर नारकिकृत दुख भोगे, अंतर सुखरस गटागटी | रमत अनेक सुरनि संग पै विस, परनवि नित हटाईटी || चिन्मू० ॥ १ ॥ ज्ञानविरागशक्ति विधिफैल, भोगत पै विधि चॅटाघटी । सदननिवासी तदपि उदासी ard आस्रव छटाछटी || चिन्मू० || २ || जे भवहेतु अनुचक्रे ते तस करत बन्धकी भटाभट । नारक पशु लिय पंढे विकलत्रय, प्रकृतिनकी है कटकटी || चिन्सू० ॥ ३ ॥ संयम वर न सके पै संयम, धारनकी उर चटानटी । तासु सुयश गुनकी दौलत लगी, रहै नित रटारटी || चिन्मू० ॥ ४ ॥ ९६ " चेतन यह बुधि कौन सयानी; कही सुगुरु हित सीख मानी ॥ टेक ॥ कठिन काकताली ज्यौं पायौ, नरभव सुकुल श्रमण निनवानो । चेतन० ॥ १ ॥ भूमि न होत 1 १ अटपटी । २ दूरपना । ३ कर्मफल । ४ न्यूनपना । ५ नपुंसक । ६ काकतालीय न्याय से अर्थात् जैसे ताडवृक्षसे ताड़फलका टूटना और कागका उसके नीचे दबकर मरलाना कठिन है वैसे

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