Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ ५६ दौलत-जैनपदसंग्रह। नहिं लाये ||हम तो० ॥२॥ वहिरातपता तजी न अन्तरदृष्टि न है निज. ध्याये । घाम-काम धन-समाकी नित, श्राश हुताश जलाये ॥ हम तो० ॥ ३ ॥ अचल धनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये । दौल चिदानंद स्वगुन मगन जे, ते जिय सुखिया थाये । हम वो० ॥ ४ ॥ हम तो कबहुं न निज घर आये। परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक घराये । हम तो० ॥ टेक ।। परपद निजपद पानि मगन हवै, परपरनति लपटाये । शुद्ध युद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये । हम तो० ॥१॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । अमल अखण्ड अतुल अविनाशी, भातमगुन नहिं गाये । हम तो० ॥२॥ यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये । दौल तजौ अजहूं विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये ॥ हम तो० ॥ ३ ॥ ___ मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानी। भयौ अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि विसरानी ॥ टेक ॥ दुखी अना'दि कुंवोध अवृत्ततें, फिर तिनसौं रवि ठानी । ज्ञानसुषा नि १शारूपी अग्निमें । ९ मिथ्यात्वसे । ३ मिथ्या चारित्रसे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83