Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 55
________________ दौलत जैनपद । ५३ काल मोज, आपनी ठगाई । हे नर० ॥ टेक ॥ सूरखे अथ कर्म कहा, मैद नहि धर्म मे नहि पर्म लहा, लादुक, देरके तताई || हे नर० ॥ १ ॥ जमके रव वाजते, सुमेव अति गाजते, अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न पाई ॥ नर || २ || परको अपनाय भाप, रूपको भुलाय हाय श्नविषय दारु जार, चाहदों बढ़ाई !! हे नरः ॥ ३ ॥ अर सुन जिनान, राग द्वेपको जवान, मोक्षरूप निज पान दौल, भज विरागताई ॥ हे नर० ॥ ४ ॥ ७७ म पारी आज महिपा जानी | म भारी० || टेक | भवतों मोह महामढ पिप में, तुमरी सुधि विमरानी । माग जगे तुम शांति छवी लखि, जडना नींद बिलानी ॥ मु० ॥ १ ॥ जगविजयी दुखदाय रागरूप, तुम दिनकी यिवि मानी । शांतिसुवासागर गुन यागर, पम्म विराग विज्ञानी । प्रभु० || २|| समवसरण अतिशय कपलाजुन वै निग्रन्थ नि. दानी । क्रोधविना दुट मोहविदारक, त्रिभुवनपूज्य मानी । प्रभु० ॥ ३ ॥ एकस्वरूर कळपाऊन, नग- उदास जग मानी । शत्रुमित्र सबमें तुम मम हो, जो दुख फल यानी | प्रभु || १ || परम ब्रह्मचारी है प्यारी, तुम हेरी शिवरानी । हैं कृतकृत्य तदपि तुम शिवण, उपदेशक है। http १ 'मुद्गर अप कर धान मे नहि मरमदान ऐशा

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