Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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दौलत-जैनपदसंग्रह । गति, सो तुम जानत सारी । याद किये दुस होत हिये व्यों, लागत कोट कटारी ।। सुध लीयो० ॥२॥ लब्धि. अपर्यापतनिगोदमें एक उसासमंमारी। जनममरन नवदु. गुन वियाकी कथा न जात उचारी | सुघ लीयो० ॥ ॥३॥ भूजल विकन पवन प्रतेक तरु, विकलत्रयतनधारी । पंचेंद्री पशु नारक नर सुर, विपति भरी भयकारी ॥ सुध लीज्यो० ॥ ४ ॥ मोह महारिपु नेक न सुखमय, होन दई सुधि धारी । सो दुठ मंद भयो भागनते, पाये तुम जगतारी ॥ सुध लीज्यौ ॥५॥ यद्यपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहज प्रगटकरवारी । ज्यों रविकिरन सहजमगदर्शक यह निमिच अनिवारी ॥ मुब ली० ॥ ६॥ नाग छाग गज वाघ भील दुठ, तारे अधम उधारी । सीस नवाय पुकारत अबके, दौल अधमकी वारी । सुध ली० ॥ ७॥
१५ मत राचो घांधारी, भव रंमयंभसम जानके । मत राचो० ॥ टेक ॥ इन्द्रजालको रुपाल मोह ठग, विभ्रमपास प्रसारी। चहुंगति विपतिमयी जामें जन, भ्रमत मरत दुख
१ अठारहवारकी ।२ पृथ्वीकाय ! : अनिकाय । ४ है बुद्धिमानों। ५ केके खमे गमान ।

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