Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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दौलत-जनपदसंग्रह। २७ छीने ॥ हे जिन० ॥ १ कर्म कर्मफलमाहि न राचे, मानसुधारस पीनें ॥ हे जिन० ॥३॥ मुझ कारके तुम कारन घर, भरज दौलकी लीजै । हे जिन० ॥४॥
शामरियाके नाम जपेत, छूट जाय भवमामरिया । शाम० ॥ टेक ॥ दुरित दुरत पुन पुरत फुरन गुन, भातमकी निधि भागरियो । विघटत है परदाह चाह झट, गटकन समरस गागरियो । शाम०॥१॥ कटत कलंक कर्म कलसायन, प्रगटत शिवपुरदागरियां । फटत घटाधन मोह छोह हट, प्रगटत भेदज्ञान परियां || शाम० ॥२॥ कृपाकटाक्ष तुमारीहीत, जुगलनागविपदा टरिया पार भये सो मुक्तिरम तुद पागरियां ।। शाम०॥३॥
३५ शिवमगदरसावन संवरो दरस । शिवमग० ॥ टेक ।। पर-पद चाह-दाह-गद नाशन, तुम ववभेषज-पान सरस । शिवमग ॥१॥ गुणचितवत निज अनुभव प्रगटे, विघटै
१ भवनमण । २ पाप । ३ विपते है।४ स्फुरित होता है ।५ गटफठे हैं अर्थात् पाते हैं । ६कातिरा | ७ मोक्षको रगर अधात गाना । ८ रागद्वेष । ' म्हारा नाम पारण करके । १. आपका ९५ पुगतर. मन्त्री बाहक दाहम्पी रोग नाश करने हिरे वा!

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