Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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दौलत-जैनपदसंग्रह। करि, जनपै पूज्य मनाचे । धाम वाम तज दासी राखै बाहिर पदी बनावै ॥ ऐसा० ॥५॥ नाप घराय जी तपसी मन, पियनिमें ललचावै। दौलत सो अनन्त भव भटक, आरनको भटकावे ॥ ऐसा० ॥ ६ ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें पावै ॥ ऐसा० ॥ टेक ।। संशय विभ्रम मोह-विवर्जिन, स्वपरस्वरूप लखा । लरू परमातप चेतनको पुनि, कर्मफलंक मिटावे ॥ ऐसा योगी० ॥१॥ भवत्तनमोगविरक्त होय तन, नग्न सुमेप बनावै । मोडविकार निवार निजातम,अनुभवमें चित ला ॥ ऐसा योगी० ॥ २॥ स-पार. बघ त्याग सदा परमाददवा छिटकावे । रागादिकवश झूट न भाख, हणन अंदत गहावै ।। ऐमा रोगी० ॥ ३ ॥ गाहिर नारि स्पागि अतर निदब्रह्म मुलीन सराव । परपाकिंचन धर्मसार सो, विविध प्रसग वहावें । ऐसा योगी० ॥ पंच समिति प्रय गुप्ति पाल व्यवहार-नग्नग वा । निउचय सकळकपायरहिन , शुद्धातम यिर बारे ॥ ऐया योगी ॥शाप पंकदास रिपु मधि, व्याल बाल सम मारे । भारत रौद्र यान पिटारे, धर्मशुकलको संचार और और मोगों मिनिग दिवाकारका परिणत
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