Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 46
________________ ४१ दौलत-जैनपदसंग्रह। ते बहु खेद लहायो । विवसुख दैन जैन जगदीपक, सो त कवहुं न पायो, मिटयो न अज्ञान अंधेरा ।। भाखू०॥२॥ दर्शनज्ञानचरण तेरी निधि, सो विधिठगन ठगी है । पांचों इंदिनके विषयनमें, तेरी बुद्धि लगी है, भया इनका तू, चेरा ॥ भाखू० ॥ ३॥ तू जगजाल विष बहु उरभयौ, अब कर ले सुरझेरा । दौलत नेमिचरनपंकजका हो तू भ्रमर सेबेरा, नशै ज्यों दुख भवकेरा ।। मारव० ॥४॥ ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै, जाको जिनवानी न सुहावै । ऐमा० ॥ टेक ॥ वीतरागसे देव छोडकर, भैरख यक्ष मनावै । कल्पलता दयालुता नजि हिंसा इन्द्रायनि बावै ॥ ऐसा ॥१॥ रुचै न गुरु निग्रन्थभेष बहु,-परि. प्रही गुरु भावै ।,परधन परवियको अभिला, अशनं अशो. पित खावै ॥ ऐसा०॥२॥ परकी विभव देख है सोमी, परदुख हरख लहावै । धर्म हेतु इक दाम न ग्वरच, उपवन लक्ष वहावै ॥ ऐसा० ॥३॥ क्यों गृहमें संचै बहु अष त्यों, बनहूमें उपजावै। अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, वाघम्वर तन छावै ॥ ऐसा ॥४॥ आरम तन शठ यंत्र मंत्र - १ कर्मरूपी ठगोंने १२ शीघ्र ही । ३ भोवे । ४ भोमन । ५ विना शोधा हुमा । ६ दुखी। ७ बाग बनाने में लाखों रुपये।

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