Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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दौलत-जैनपदसंबह ।
हे जिन तेरो सुजस उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी । है जिन० ॥ टेक ॥ दुर्जय मोह महाभट जाने, निजवश कीने जगमानी , सो तुम ध्यानपान पानिगहि, वतछिन ताकी यिति भानी । हे जिन० ॥१॥ सुप्त अनादि अविद्या निद्रा, जिन जन निजसुधि विसरानी । है सचेत तिन निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुम वानी । हे जिन० ॥२॥ मंगलभय तू जगमें उत्तम,तुही शरन शिवमगदानी । तुवपद-सेवा परम औषधि, जन्मजरामृतगदहानी* । हे जिन० ॥३॥ तुमरे पंच कल्यानकमाही, त्रिभुवन मोददशा ठगनी, विष्णु विदम्बर, निष्णु, दिगम्बर, बुध, शिव कह ध्यावत ध्यानी । है जिन० ॥४॥सर्व दर्वगुनपरजयपरनति, तुम सुवोधमें नहिं छानी । तातै दौल दास उर पाशा, प्रगट करो निजरससानी, हे जिन० ॥५॥
हे मन तेरी को कुटेव यह, करनेविषयमें धा है, हे मन० ॥ टेक ।। इनहीके वश तु अनादित निजस्वरूप न लम्बावै है। पराधीन छिन छीन सपाइल, दुर्गति
* जन्ममरणराकपी रोग।२ इनद्रयोंके विषयमें।

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