Book Title: Daulat Jain Pada Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ दौलत-जैनपदसंग्रह । १५ १२ जयनं आनंद जननि दृष्टि परी माई । तब. संशय .विमोड मरमता विलाई । जस्तैः ॥ टेक ॥ मैं हूं चिनचिह्न, मिन्न परतें, पर जडस्वरूप, दोरमकी एकना सु, जानी दुखदाई | जमन० ॥ १ ॥ गणादिक कंबहेन, वधन बहु विपनि देत, संदर किन जान तामु, हेतु ज्ञानताई । जवते ॥ २ ॥ सब मुबमर शिव है तमु, सारन विधिमारन इमि, तत्की विचारम लिन.-वानि सुधिकराई । जवक्० ॥ ३ ॥ विषयचाइबाली, द. इयो अनंतकालने सु, धांघुस्यापदांकगाह, प्रशांनि आई । जबते ॥४॥ या दिन जगजाल में न शरन तीनकालमें स,-म्हाल चिन भजो सढीव, दौत्र यट समाई। जवतैः ॥५॥ भज ऋषिपंति ऋगमेश नाहि नित, नमत अमर सुरा । मनमध मथ दरपादन शिवय, तृप-स्य चक्रधुरा ।। भज० ॥ टेक ॥ जा प्रभु गर्म छमामपूर्व मुर, करी सुवर्ण धरा । जन्मन सुरगिर घर सुरगन्युत, हरि पय न्दरन करा: मज० ॥ * ॥ नटन नती मिलय १ निर्जरा । २ स्याद्वादरूपी अमृतने अवगाहन करनेसे ।३ मुनिनाय । ४ धर्म ईग माटिनाय मगवान् । ५ कामदेवके मथनेवाले । ६ मोतपय ७ इन्द्र । ८ अपारा। - - - - - -

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