________________
मधि सभा बनी द्वादश अनूप, सित चन्द्रकान्ति मणि को सु तूप
गन्धकुटी आमोद सार, धुज शिखर कलश उद्योत का ॥ 8 ॥ जय आदि पीठ षोडश सिवान, मनु षोडश भावन के निधन जय दुतयि पीठ वसु गुण चढ़ाय, जय तृतीय पीठ वसु भव लखाय॥9॥ जय सिंहपीठ परि कंवल सार, जिन अन्तरीक्ष आनन सुच्यार । जय भामण्डल छवि कोटि फान, अरू छत्र तीन तैं शीश लजान॥10॥ जय तरु अशोक शोक दूर, जख चवर करें चउसठि हजूर । है मागधि भाषा कोस च्यार, सुर पुष्प वृष्टि शोभा अपार।।11।। नभ दुन्दभि बाजै अति गंभीर, अध द्वादश कोटिन शब्द भीर। सुर असुर करें जय नन्द-नन्द, चालै समीर अति मन्द मन्द।।12।। जय देव नन्त चतुष्ट धार, दरसन सुख वीरज ज्ञान सार। जय तीन काल ध्वनि दिव्य होय, सुनि समझि जाय दस प्राण सोय॥13॥ भू दर्पण सम कंटक न कोय, षट् ऋतु फल फूल सुगन्ध होय। जन्माविरोध प्राणी न रोष, पद कमल रचैं जखि सर्व तोष॥14॥ प्रभु गुण अनन्त भाषे न जांय, मैं अल्प बुद्धि सुरगुरु थकांय। मैं अरज करूँ करि धारि शीश, मुझ तारि-तारि भवतें जगी ॥15॥
घत्ता
इह जिन गुण सारं, अमल अपारं, जो भवि जन कण्ठे धरई । हनि जर-मरणावलि, नासि भवावलि, रामचन्द्र शिवतिय वरई । ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
138