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तृप्त क्षुधा से रहित जिनेश्वर, क्या नैवेद्य से पूजा करूँ, अनुभव रसमय नैवेद्य साँचा, तुम चरणों में प्राप्त करूँ। चाह नहीं किंचित् भी स्वामी, स्वयं स्वयं में तृप्त रहूँ, सादि अनंत मुक्ति पद जिनवर, आत्म-ध्यान से प्रकट लहूँ। जग का झूठा स्वाद ये, चाख्यो बार अनंत, वीतराग जिन स्वाद लूँ, होवे भव का अन्त
ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अगणित दीपों का प्रकाश भी, दूर नहीं अज्ञान करे, आत्म-ज्ञान की एक किरण, ही मोहतिमिर को तुरंत हरे । अहो ज्ञान की अद्भुत महिमा, मोही नहिं पहचान सकें, आत्म-ज्ञान का दीप जलाकर, साधक तेरी पूजा करें स्वानुभूति प्रकाश में, भासे आत्म-स्वरूप,
राग-पवन लागे नहीं केवलज्योति अनूप
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वेष भाव नहीं रहा, रागांश मात्र विशेष हुआ, ध्यान-अग्नि प्रगटी ऐसी, तहाँ कर्मेन्धन सब भस्म हुआ।
अहो आत्म-शुद्धि अद्भुत है, धर्म सुगन्धी फैल रही, दशलक्षण की प्राप्ति करने, प्रभु चरणों की शरण गही। स्व सन्मुख हो अनुभवँ ज्ञानानन्द स्वभाव, निज में ही हो लीनता, विनसै सर्व विभाव।
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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