________________
सुख-दुख सब कर्मों का फल है, कर्मों की लीला है न्यारी।
हे नाथ सहारा मिले तेरा, तप अग्नि की करूँ तैयारी।। यह धूप अग्नि में खेऊँगा, शुभ धूप बनाकर मैं लाया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
भक्ति से मैं पूजा करता, पर फल की चाह ही रहती है। मुक्ति का फल मिल जाये मुझे, आतम जग में दुख सहती है।। बोझा पापों का हट जाये, थाली भर फल मैं ले आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
बाधाओं का पथ मिला मुझे, प्रभु तुम तक पहुँच न पाता हूँ।
जग की झंझट उलझाती है, हर पीड़ा को सह जाता हूँ।। पाऊँ अनर्घ्य पद हे प्रभुवर, अर्यों का थाल मैं ले आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।91
पंचकल्याणक अंतिम भव पाने प्रभू, मात गर्भ में आये।
लक्ष्मणा देवी खुश हुई, महासेन हर्षाये।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-पंचम्यां
गर्भमंगल-मंडिताय अय॑नि र्वपामीति स्वाहा।।।
491