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व्रत समिति गुप्ति चारित्र धर्म, वैराग्य-भावना हृदय धार। हे द्रव्य-भाव संयममय मुनिवर, सर्व-साधु को नमस्कार ॥ बहु पुण्य-संयोग मिला नर- तन, निजश्रुत जिनदेव चरण-दर्शन ।
हो सम्यक्-दर्शन प्राप्त मुझे, तो सफल बने मानव-जीवन।। निज-पर का भेद जानकर मै, निज को ही निज में लीन करूँ। अब भेदज्ञान के द्वारा मैं, निज-आत्म स्वयं स्वाधीन करूँ। निज में रत्नत्रय धारण कर, निज - परिणति को ही पहचानूँ। पर परणति से हो विमुख सदा, निजज्ञान-तत्त्व को ही जानूँ । जब ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता विकल्प तज, शुक्ल - ध्यान मैं ध्याऊँगा।
तब चार घातिया क्षय करके, अर्हंत-महापद पाऊँगा ।। है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा, हे प्रभु ! कब इसको पाऊँगा। सम्यक् पूजा- फल पाने को, अब निज-स्वभाव में आऊँगा। अपने स्वरूप की प्राप्ति-हेतु, हे प्रभु की है पूजन तब तक चरणों में ध्यान रहे, जब तक न प्राप्त हो मुक्ति -सदन।। ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पंचपरमेष्ठिभ्यः जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे मंगलरूप अमंगलहर, मंगलमय मंगलगान करूँ। मंगल में प्रथम श्रेष्ठ मंगल, नवकार मंत्र का ध्यान करूँ।
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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