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कर्मों की ज्वाला धधक रही, संसार बढ़ रहा है प्रतिपल । संवर से आस्रव को रोकूँ, निर्जरा-सुरभि महके पल-पल। मैं 'धूप चढ़ाकर अब आठों, कर्मों का हनन करूँ स्वामी॥ हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः अष्टकर्म दहनाय धूपंनिर्वपामीति स्वाहा।।
निज-आत्मतत्त्व का मनन करूँ, चिंतवन करूँ निज - चेतन का । दो श्रद्धा-ज्ञान- चारित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष - निकेतन का || उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी ।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा॥
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जल चंदन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ। अब तक संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ ।। यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दो स्वामी । हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी॥ श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
जयमाला
जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, निज-ध्यान- लीन गुणमय अपार । अष्टादश-दोष रहित जिनवर, अर्हत-देव को नमस्कार ॥ अविकल अविकारी अविनाशी, निजरूप निरंजन निराकार | जय अजम-अमर हे मुक्तिकंत, भगवंत सिद्ध को नमस्कार ॥ छत्तीस गुण से तुम मंडित, निश्चय - रत्नत्रय हृदय धार। हे मुक्तिवधू के अनुरागी, आचार्य-सुगुरु को नमस्कार। एकादश-अंग पूर्व-चौदह के, पाठी गुण पच्चीस धार। बाह्यांतर मुनि-मुद्रा महान्, श्री उपाध्याय को नमस्कार ॥
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