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मार्गणा ना गुणस्थान संस्थान ना। जीव-समास ना क्लेश-स्थान ना।।
परिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। मक्षि छहपादि ना शंख कंखादि ना। लिंग ना विंग ना ज्ञान मर्याद ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। ना उदय कोउ ना वर्गणा वर्ग ना। शीत तत्तादि कोउ ही उपसर्ग ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। आदि ना अन्त ना वद्ध ना बाल ना। ना कलंकादि एकौ कहो काल ना।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। गर्ज ना हर्ज ना कर्म ना दर्ज ना। श्लेष्म औ वात पितादि का मर्ज ना।।
परिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। धार ना पार ना नाहीं आकार ना। पार ना वार ना कोई संस्कार ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। नाहिं वीहार आहार नीहार ना। तोहि योगी बतायें तरन तारना।। परिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। योग ना कामसंयोग को हेतु ना। एक राजै सदा ज्ञान में चेतना।। पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। देव यातें नमों तोहि है फेर ना। कीजिये काज मेरो करो देर ना।। पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना।
घत्ता मालती छन्द जो जिन-धर्म तनी जयमाल, धरे निज-कण्ठ महा-सुख पावे। होय न लोक जिसे निहचें, जनमादि बड़े दुख ताहि मिटावे। पाय सो काल सुलब्धि भया, फिरि जायके सिद्धि इते नहीं आवे। लोक अलोक लखे सुख सों वह, ताहि सबै जग सीस नाववें। ओं ह्री श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
छन्द एहो स्वामी धर्म देवाधिदेवा, पूजे ध्यावे तोहि इंद्रादि एवा। जेते प्राणी लोकमें तिष्ठमाना, ते ते पावें तो दया सौख्य जाना।
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