Book Title: Bhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana Author(s): Ganeshilal Suthar Publisher: L D Indology AhmedabadPage 18
________________ परिचय है, क्योंकि उन दिनों काश्मीर में शैवमत का प्रचुर प्रचलन था । प्रो. राधाकृष्णन ने उनको काश्मीर शैवसम्प्रदाय से सम्बद्ध बतलाया है। उनकी काश्मीर निवासिता की पुष्टि हेतु प्रमाण देते हुए प्रो. विद्याभूषण ने कहा है कि काश्मीर-निवासी सर्वज्ञमित्र (७७५ ई.) और सर्वज्ञ देव (१०२५ ई.) के नाम से अत्यधिक साम्य के कारण भासर्वज्ञ भी काश्मीर निवासी थे, ऐसा प्रतीत होता है । यह भी मुझे ज्ञात हुआ है कि एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता के ग्रन्थालय में किसी ग्रन्थ में 'काश्मीर. जातेन' ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भासर्वज्ञ काश्मीरी थे । काल भासर्वज्ञ और वाचस्पति मिश्र के पूर्वापरकालवर्तित्व के विषय में विद्वानों में मतभेद है, जिसका उल्लेख आगे किया जायेगा, परन्तु स्वयं भासत्रज्ञ का काल दसवीं शताब्दी है, यह नि सन्दिग्ध है। प्रो. राधाकृष्णन, महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण, प्रो. दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य, महामहोपाध्याय विन्ध्येश्वरीप्रसाद, श्री सी. डी. दलाल' आदि विद्वानों ने भासर्वज्ञ का काल दसवीं शताब्दी माना है। स्वामी योगीन्द्रानन्द ने भासर्वज्ञ के काल के विषय में म.म. विद्याभूषण के मत का समर्थन करते हुए निम्नलिखित तर्क दिये हैं -- (१) आचार्य उदयन का समय ९८४ ई. है। उसके द्वारा आलोचित बौद्ध दार्शनिक ज्ञानश्री का समय ९६० ई. है । ज्ञानश्री के द्वारा समालोचित भासर्वज्ञ का काल ९३० ई. है। ८२२ ई. में विद्यमान श्री मण्डनमिश्र का खण्डन करते हुए कर्णकगोमी का समय नवम शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिए । कणकगोमो द्वारा सांख्या चार्य माधव को दिये गये सांख्यनाशक विशेषण पद का विवरण देते हुए से भासर्वज्ञ कहते है- 'माधवमताभ्युपगमे तु सांख्यनाश एव' (न्याय भूषण, पृ. ५६९) । अतः उससे परवर्ती यह आचार्य दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में होना चाहिए । 1. (अ) न्यायसार, (मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सीरीज, १६.६१) English Intro, P. 7. (a) He shows a marked Shaiva influence: and so it is further premised of him that he was a native of Kasbmir where Shaiva-belief was always strong --Nyāyasāra (Poona, 1922), Introduction, P. 4. 2. He is a Saivite, perhaps of the Kashmir Sect,... 3. A History of Indian Logic, P. 351.- Indian Phil., Vol. II. p. 40. 4. Indian Philosophy, Vol. II, P. 40. 5. A History of Indian Logic, P. 358. 6. History of Navya-Nyāya in Mitbila, P. 37. 7. गणकारिका, भूमिका, पृ. १.. 8. न्यायभूषण, प्राम्बन्ध, पृ. ६,७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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