Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (२८१८) दन्त्यादिकल्कः ( १ ) ( वं. से. । विषूच्य. ) कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [+] भी करने चाहियें । अपतानक रोगमें अन्य वातनाशक उपाय | दन्तीद्रवन्ती सुरसासर्षपैश्चापि बुद्धिमान् । तर्कारीस्वरसं शिग्रुवचावत्सक निम्बः पत्रमूलफलैस्तोयैः शृतमुष्णच सेवनम् || दन्ती, द्रवन्ती ( वृहद्दन्ती), तुलसी, सरसों, अरणी, सहंजना, बच, कुड़ा और नीम । इनके पत्र, मूल और फलोंका स्वरस या कान बनाकर गरम गरम पिलाने से ऊरुस्तम्भ नष्ट होता है । (२८२२) दर्भमूलादिक्वाथः ( ट. नि. र. । ज्वर. ) हन्ति दन्त्यनिकentतु पिप्पली कल्कसंयुतः । पीतः कोष्णेन तोयेन क्षिप्रं हन्याद्विषूचिकाम् ।। www.kobatirth.org दन्ती, चीता, और पीपल समान भाग लेकर पत्थर पर पानी के साथ पीसकर मन्दोष्ण पानीके साथ पिलाने से विसूचिका शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। (२८१९) दन्त्यादिकल्कः ( २ ) ( च. द. । उदरा. ) दन्ती वचा गवाक्षी च शङ्खिनी तिल्वकं त्रिवृत् । गोमूत्रेण पिबेत्कल्कं जठरामधनाशनम् ॥ दन्ती, बच, इन्द्रायणकी जड़, शंखिनी, लोध और निसोत समान भाग लेकर गोमूत्रके साथ पत्थर पर पीसकर गोमूत्र के साथ पिलानेसे उदर रोग शान्त होते हैं । (२८२०) दन्त्यादिकाथः ( वं. से. । ज्व.) दन्तीं द्रवन्तीं वृहतीमेrण्डं बीजपूरकम् । श्यामां व्याघ्रीश्च निष्क्काथ्याभिन्यासे बहुवर्चसि अभिन्यास ज्वरमें मल अधिक हो तो दन्ती, द्रवन्ती ( बृहद्दन्ती ), बड़ी कटेली, अरण्डकी जड़, बिजौरेकी जड़, निसोत (काली) और छोटी कटेका काथ बनाकर पिलाना चाहिए । (२८२१) दन्त्यादियोगः ( वं. से. । ऊरुस्तम्भ . ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द बला गोक्षुरकं पचेत्पादावशेषितम् । शर्करा घृतसंयुक्तं पिबेद्वातज्वरापहम् ॥ दाभ, खरैटी और गोखरु बराबर बराबर मिलाकर २ तोले लें और ३२ तोले पानी में पकावें । जब ८ तोले पानी बाकी रह जाय तो छानकर उसमें खांड और घी मिलाकर पिलावें । इसके सेवन से वावर नष्ट होता है । (२८२३) दशमूलम् ( च. द. | अ. १; भा. प्र. म. ख. व.; ग. नि; र. र.; ध.; वृ. नि. र. । ज्व.; आयु. a. वि. (ज्वर यो... २०; यो. चि. । अ. ४) बिल्वश्योनाकखम्भारीपाटलागणिकारिकाः । दीपनं कफवातघ्नं पञ्चमूलमिदं महत् ॥ शालिपर्णी पृश्निपर्णी बृहतीद्वयगोक्षुरम | वातपित्तहरं हृष्यं कनीयं पञ्चमूलकम् ॥ उभयं दशमूलन्तु सन्निपातज्वरापहम् । कासे वासे च तन्द्रायां पार्श्वशुले च शस्यते ।। पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं कण्ठहृद्ग्रहनाशनम् । महान्ति यानि मूलानि काष्ठगर्भाणि यानिच ॥ For Private And Personal Use Only

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