Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 53
________________ अपने समय के विभिन्न धर्माचार्यों से मिलता है। इस प्रसंग में अजातशत्रु का महामात्य निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र के सम्बन्ध में कहता है--'हे देव! ये निर्गन्थ ज्ञातृपुत्र संघ और गण के स्वामी हैं, गण के आचार्य हैं, ज्ञानी, यशस्वी, तीर्थंकर हैं, बहुत से लोगों के श्रद्धास्पद और सज्जन मान्य हैं। ये चिरप्रव्रजित एवं अर्थगतवय (अधेड़)हैं।' तात्पर्य यह है कि अजातशत्रु के राज्यासीन होने के समय महावीर लगभग 50 वर्ष के रहे होंगे, क्योंकि उनका निर्वाण अजातशत्रु कोणिक के राज्य के 22 वें वर्ष में माना जाता है। उनकी सर्व आयु 72 वर्ष में से 22 वर्ष कम करने पर उस समय वे 50 वर्ष के थे-यह सिद्ध हो जाता है।" जहाँ तक बुद्ध का प्रश्न है, वे अजातशत्रु के राज्यासीन होने के 8 वें वर्ष में निर्वाण को प्राप्त हुए, ऐसी बौद्ध लेखकों की मान्यता है। इस आधार पर दो तथ्य फलित होते हैं-प्रथम, महावीर जब 50 वर्ष के थे, तब बुद्ध (80-8) 72 वर्ष के थे, अर्थात् बुद्ध, महावीर से उम्र में 22 वर्ष बड़े थे। दूसरे यह कि महावीर का निर्वाण बुद्ध के निर्वाण के (22-8=14) 14 वर्ष पश्चात् हुआ था। ज्ञातव्य है कि 'दीघनिकाय' के इस प्रसंग में जहाँ निर्गन्थ ज्ञातृपुत्र आदि छहों तीर्थंकरों को अर्धवयगत कहा गया है, वहाँ गौतम बुद्ध की वय के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बताया गया है। किन्तु, उपर्युक्त तथ्य के विपरीत 'दीघनिकाय' में यह सूचना भी मिलती है कि महावीर बुद्ध के जीवनकाल में ही निर्वाण को प्राप्त हो गए थे। 'दीघनिकाय' के वे उल्लेख निम्नानुसार हैं ऐसा मैंने सुना-एक समय भगवान् शाक्य (देश) में वेधन्जा नामक शाक्यों के आम्रवन प्रासाद में विहार कर रहे थे। उस समय निगण्ठ नातपुत्त(तीर्थंकर महावीर) की पावा में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निगण्ठों में फूट हो गई थी, दो पक्ष हो गए थे, लड़ाई चल रही थी, कलह हो रहा था। वे लोग एक-दूसरे को वचन-रूपी बाणों से बेधते हुए विवाद करते थे--'तुम इस धर्मविनय (धर्म) को नहीं जानते, मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ। तुम भला इस धर्मविनय को क्या जानोगे? तुम मिथ्या प्रतिपन्न हो (तुम्हारा समझना गलत है), मैं सम्यक् प्रतिपन्न हूँ। मेरा कहना सार्थक है और तुम्हारा कहना निरर्थक। जो (बात) पहले कहनी चाहिये थी, वह तुमने पीछे कही और जो पीछे कहनी चाहिये थी, वह तुमने पहले की। तुम्हारा वाद बिना विचार का उल्टा है। तुमने वाद रोपा, तुम निग्रह-स्थान में आ ||||

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