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तरीका है, अविरोधपूर्वक कथन की एक शैली है। उसका प्रत्येक भंग अनेकांतिक ढंग से एकांतिक कथन करता है, जिसमें वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निषेधक न बने। संक्षेप में, स्यावाद अपने समग्र रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकान्त भी है। सप्तभंगी अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के संबंध में एक ऐसी कथन-पद्धति या वाक्य-योजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों की सम्भावना का निषेध करते हए सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए, उसके किसी एक धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है। इसी प्रकार, अनेकांतवाद भी वस्तुतत्त्व के संदर्भ में एकाधिक निर्णयों को स्वीकृत करता है। वह कहता है कि एक ही वस्तुतत्त्व के संदर्भो में विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर अनेक निर्णय (कथन) दिये जा सकते हैं, अर्थात् अनेकांत वस्तुस्वरूप के संबंध में अनेक निर्णयों या निष्कर्षों की संभाव्यता का सिद्धान्त है। जैनाचार्यों ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'सर्वथैकांत प्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकांतः', अर्थात् अनेकांत मात्र एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रकाशक है।
स्यावाद के आधारः
सम्भवतः, यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि स्यावाद या सापेक्षित कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है? स्यावाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलतः चार कारण हैं
1. वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता, 2. मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता, 3. मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता तथा
4. भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता। (अ) वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता
सर्वप्रथम स्यावाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास करते हैं। वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पुंज है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्तधर्मात्मक कहा है। यदि हम वस्तुतत्त्व के