Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 163
________________ लेकिन पुनः यहां यह शंका उपस्थित होती है कि यदि अजितकेशकम्बल नैतिक धारणा में सुखवादी और उनका दर्शन भौतिकवादी था, तो फिर वह स्वयं साधना मार्ग और देह - दण्डन पथ का अनुगामी क्यों था? उसने किस हेतु श्रमणों एवं उपासकों का संघ बनाया था। यदि उसकी नैतिकता भोगवादी थी, तो उसे स्वयं संन्यास मार्ग का पथिक नहीं बनना था, न उसके संघ में संन्यासी या गृहत्यागी का स्थान होना था। सम्भवतः, वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि अजित दार्शनिक दृष्टि से अनित्यवादी था, जगत् की परिवर्तनशीलता पर ही उसका जोर था। वह लोक, परलोक, देवता, आत्मा आदि किसी भी तत्व को नित्य नहीं मानता था। उसका यह कहना 'यह लोक नहीं परलोक नहीं, माता-पिता नहीं, देवता नहीं... ' केवल इसी अर्थ का द्योतक है कि इन सभी की शाश्वत सत्ता नहीं है, सभी अनित्य हैं। वह आत्मा को भी अनित्य मानता था और इसी आधार पर यह कहा गया कि उसकी नैतिक धारणा में सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक नहीं। पश्चिम में यूनानी दार्शनिक हेराक्टिस (535 ई.पू.) भी इसी का समकालीन था और वह भी अनित्यवादी ही था। सम्भवतः, अजित नित्य आत्मवाद के आधार पर नैतिकता की धारणा को स्थापित करने में उत्पन्न होने वाली दार्शनिक कठिनाइयों से अवगत था, क्योंकि नित्य आत्मवाद के आधार पर हिंसा की बुराई को नहीं समाप्त किया जा सकता। यदि आत्मा नित्य है, तो फिर हिंसा किसकी? अतः, अजित ने यज्ञ, याग एवं युद्धजनित हिंसा से मानव जाति को मुक्त करने के लिए अनित्य आत्मवाद का उपदेश दिया होगा। साथ ही, ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होने वाले सांसारिक क्लेशों से भी मानव जाति को मुक्त करना चाहता था और इसी हेतु उसने गृहत्याग और देहदण्डन, जिससे आत्मसुख और भौतिक सुख की विभिन्नता को समझा जा सके, को आवश्यक माना था। इस प्रकार, अजित का दर्शन आत्म-अनित्यवाद का दर्शन है और उसकी नैतिकता है-आत्मसुख (subjective pleasure) की उपलब्धि। सम्भवतः, ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने अनात्मवादी दर्शन के निर्माण में अजित का यह अनित्य आत्मवाद अपना लिया था और उसकी नैतिक धारणा में से देह

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