Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 170
________________ इस प्रकार, हम देखते हैं कि महावीर का आत्मवाद तत्कालीन विभिन्न आत्मवादों का सुन्दर समन्वय है। यही नहीं, वरन् यह समन्वय इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रकार की आत्मवादी धाराएं अपने-अपने दोषों से मुक्त हो-होकर यहां आकर मिल जाती हैं। हेमचन्द्र इस समन्वय को औचित्यता के एक सुन्दर उदाहरण द्वारा प्रस्तुत करते हैं गुडो हि कफ हेतुः स्यात् नागरं पित्तकारणम्। व्दयात्मनि न दोषोस्ति गुडनागरभेषजे।। जिस प्रकार गुड़ कफजनक और सौंठ पित्तजनक है, लेकिन दोनों के समन्वय में यह दोष नहीं रहते, इसी प्रकार विभिन्न आत्मवाद पृथक्-पृथक् रूप से नैतिक अथवा दार्शनिक दोषों से ग्रस्त हैं, लेकिन महावीर द्वारा किए गए इस समन्वय में वे सभी अपनेअपने दोषों से मुक्त हो जाते हैं। यही महावीर के आत्मवाद की औचित्यता है। यही उनका वैशिष्ट्य है। *** संदर्भ 1. मज्झिमनिकाय-2/3/7 2. संयुक्तनिकाय-3/1/1 3. (अ) सूत्रकृतांग, प्रथम अध्ययन, (ब) भगवती-1/9/5, शतक 15, (स) उत्तराध्ययन-14/18 4. ये प्राचीनतम माने जाने वाले उपनिषद् महावीर के समकालीन या उनके कुछ परवर्ती ही हैं, क्योंकि महावीर के समकालीन 'अजातशत्रु का नाम निर्देश इनमें उपलब्ध है। बृहदा-2/15-17 5. गीता-3/27, 2/21,8/17 6. अंगुत्तरनिकाय का छक्क निपातसुत्त तथा भगवान् बुद्ध, धर्मानन्द कौशम्बी, पृ.18 7. गोशालक की छः अभिजातियां व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं हैं 1. कृष्ण, 2. नील, 3. लोहित, 4. हरित, 5. शुक्ल, 6. परमशुक्ल, तुलनीय, जैनों का लेश्या सिद्धान्त-1. कृष्ण, 2. नील, 3. कपोत, 4. तेजो, 5. पद्म, 6. शुक्ल। (विचारणीय तथ्य यह है कि गोशालक के अनुसार निर्ग्रन्थ साधु तीसरे लोहित नामक वर्ग में हैं, जबकि जैन धारणा भी उसे तेजोलेश्या या लोहित वर्ग का साधक मानती है।) 8. छान्दोग्य उपनिषद्-3/14/3 / बृहदारण्यक उपनिषद्-5/6/1 कठोपनिषद् -2/4/12 9. गीता-2/18-20 ***

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