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अभिजातियों के कर्त्तव्य का पालन करते हुए स्वतः विकास की क्रमिक गति से आगे बढ़ता रहता है।
पारमार्थिक दृष्टि से या तार्किक दृष्टि से नियतिवाद विचारणा का चाहे कुछ मूल्य रहा हो, लेकिन नैतिक विवेचना में नियतिवाद अधिक सफल नहीं हो पाया। नैतिक विवेचना में इच्छा-स्वातंत्र्य(free will) की धारणा आवश्यक है, जबकि नियतिवाद में उसका कोई स्थान नहीं रहता है, फिर दार्शनिक दृष्टि से भी नियतिवादी तथा स्वतः विकासवादी धारणाएं निर्दोष हों, ऐसी बात भी नहीं है।
नित्य कूटस्थ- सूक्ष्म-आत्मवाद
बुद्ध का समकालीन एक विचारक पकुधकच्चायन आत्मा को नित्य और कूटस्थ (अक्रिय) मानने के साथ ही उसे सूक्ष्म मानता था। 'ब्रह्मजालसुत्त' के अनुसार उसका दृष्टिकोण इस प्रकार का था
सात पदार्थ किसी के बने हुए नहीं हैं (नित्य हैं), वे तो अवध्य कूटस्थ - अचल हैं। जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता | बस इतना ही समझना चाहिए कि सात पदार्थों के बीच अवकाश में उसका शस्त्र घुस गया है।
इस प्रकार, इस धारणा के अनुसार आत्मा नित्य और कूटस्थ तो थी ही, साथ ही सूक्ष्म और अछेद्य भी थी। पकुधकच्चायन की इस धारणा के तत्त्व उपनिषदों तथा गीता में भी पाए जाते हैं। उपनिषदों में आत्मा को सरसों या चावल के दाने से सूक्ष्म माना गया है तथा गीता में उसे अछेद्य, अवध्य कहा गया है।
सूक्ष्म आत्मवाद की धारणा भी दार्शनिक दृष्टि से अनेक दोषों से पूर्ण है, अतः बाद में इस धारणा में काफी परिष्कार हुआ है।
महावीर का आत्मवाद
यदि उपर्युक्त आत्मवादों का तार्किक वर्गीकरण किया जाए, तो हम उनके छः वर्ग बना सकते हैं
1. अनित्य आत्मवाद या उच्छेद आत्मवाद
2. नित्य आत्मवाद या शाश्वत आत्मवाद
3. कूटस्थ आत्मवाद या निष्क्रिय आत्मवाद एवं नियतिवाद