Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 126
________________ अपेक्षाभेद से नित्य भी है, पर्यायदृष्टि से अनित्य । इसी प्रकार, एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था - हे सोमिल ! द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनावस्थाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ।' वस्तुतत्त्व के इस अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहु ही विस्तार के साथ हुआ है, किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपर्युक्त एक-दो उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। वस्तुतत्त्व की यह अनन्तधर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी धर्मयुगलों की एक साथ उपस्थिति अनुभव - सिद्ध है। एक ही आम्रफल खट्टा और मधुर (खट्टा-मीठा ) - दोनों ही हो सकता है। पितृत्व और पुत्रत्व के दो विरोधी गुण अपेक्षा -भेद से एक ही व्यक्ति में एक ही समय में साथ-साथ सिद्ध हो सकते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम विरोधी धर्म- युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध नहीं है। अपेक्षा भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में होना सम्भव है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक व्यक्ति छोटा या बड़ा कहा जा सकता है, अथवा एक ही वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती है। जो संखिया जनसाधारण की दृष्टि से विष है, प्राणापहारी है, वही एक वैद्य की दृष्टि में औषधि या जीवन-संजीवनी भी है। अतः, यह एक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्मयुगलों की उपस्थिति देखी जाती है। यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्मयुगलों की उपस्थिति नहीं है। इस संबंध में धवला का निम्न कथन दृष्टव्य है- 'यदि वस्तु में सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जाए, तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जावेगा ।" अतः, यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में केवल वे ही विरोधी धर्मयुगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है, किन्तु इस बात से वस्तुतत्व का अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यता - अनित्यता, एकत्व - अनेकत्व, अस्तित्वनास्तित्व, भेदत्व - अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्मयुगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है। आचार्य अमृतचंद्र 'समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षाभेद से जो है, वही नहीं भी है, जो सत् है, वह असत् भी है, जो एक है, वह अनेक भी है, जो नित्य है, वही अनित्य भी है।' वस्तु एकान्तिक न होकर अनेकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र 111

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