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सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सभी दृष्टिकोण (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जैसे- कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकान्तवादी को न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। वास्तव में, माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है। मध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद पर ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है, क्योंकि जहां आग्रह बुद्धि होती है वहां विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन सम्भव नहीं होता । वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद आदि जितने भी दार्शनिक मतमतान्तर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिए गए चित्र हैं और आपेक्षिक रूप से सत्य हैं, द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों का समन्वय किया जा सकता है। अतः, एक सच्चा स्यावादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है। परमयोगी आनंदघनजी लिखते हैं.
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षट् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे।।1।। जिन सुर पादप पाय बखाणुं, सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे ।।2।। भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे। लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे।।3।। लोकायतिक सुख कूख जिनवर की, अंश विचार जो कीजे । तत्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम बिण केम पीजे ।। 4 ।। जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे।
अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे | 15 ||
(ब) राजनीतिक क्षेत्र में स्याद्वाद के सिद्धान्त का उपयोग
अनेकान्त का सिद्धान्त न केवल दार्शनिक अपितु राजनीतिक विवाद भी हल करता है। आज का राजनीतिक जगत् भी वैचारिक संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद,